तीखी कलम से

मेरे बारे में

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जी हाँ मैं आयुध निर्माणी कानपुर रक्षा मंत्रालय में तकनीकी सेवार्थ कार्यरत हूँ| मूल रूप से मैं ग्राम पैकोलिया थाना, जनपद बस्ती उत्तर प्रदेश का निवासी हूँ| मेरी पूजनीया माता जी श्रीमती शारदा त्रिपाठी और पूजनीय पिता जी श्री वेद मणि त्रिपाठी सरकारी प्रतिष्ठान में कार्यरत हैं| उनका पूर्ण स्नेह व आशीर्वाद मुझे प्राप्त है|मेरे परिवार में साहित्य सृजन का कार्य पीढ़ियों से होता आ रहा है| बाबा जी स्वर्गीय श्री रामदास त्रिपाठी छंद, दोहा, कवित्त के श्रेष्ठ रचनाकार रहे हैं| ९० वर्ष की अवस्था में भी उन्होंने कई परिष्कृत रचनाएँ समाज को प्रदान की हैं| चाचा जी श्री योगेन्द्र मणि त्रिपाठी एक ख्यातिप्राप्त रचनाकार हैं| उनके छंद गीत मुक्तक व लेख में भावनाओं की अद्भुद अंतरंगता का बोध होता है| पिता जी भी एक शिक्षक होने के साथ साथ चर्चित रचनाकार हैं| माता जी को भी एक कवित्री के रूप में देखता आ रहा हूँ| पूरा परिवार हिन्दी साहित्य से जुड़ा हुआ है|इसी परिवार का एक छोटा सा पौधा हूँ| व्यंग, मुक्तक, छंद, गीत-ग़ज़ल व कहानियां लिखता हूँ| कुछ पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होता रहता हूँ| कवि सम्मेलन के अतिरिक्त काव्य व सहित्यिक मंचों पर अपने जीवन के खट्टे-मीठे अनुभवों को आप तक पहँचाने का प्रयास करता रहा हूँ| आपके स्नेह, प्यार का प्रबल आकांक्षी हूँ| विश्वास है आपका प्यार मुझे अवश्य मिलेगा| -नवीन

सोमवार, 28 दिसंबर 2015

तो बागी हूँ मैं अपनी जीत की तलवार लिखता हूँ


कातिलों  के  चमन  की  हर  दरो  दीवार  लिखता हूँ ।
यहाँ  नफ़रत  के  साये  में वतन  से प्यार लिखता  हूँ ।।

तू मुल्के  मुख़बिरी अय्याशियों  के  नाम  कर  डाला ।
जो  डायन  कह गया  माँ  को  उसे गद्दार लिखता हूँ।।

हों  पैरोकार  दहशतगर्द  के  जब  भी  सियासत  में ।
मिटाकर  हस्तियां  उनकी नई  सरकार लिखता  हूँ ।।

उखड़ती  ईट  सड़को  पर  तरक्की  देख ली  सबने ।
तेरे जुमलों शिगूफों  का  बड़ा  व्यापार  लिखता  हूँ ।।

गले जब तुम मिले उस से तो शक बदला  यकीनों  में ।
भ्रष्टता  का   नहीं  तुझको  मै  पहरेदार   लिखता  हूँ ।।

जलाकर  राख  करते जो अमन  का हौसला अक्सर ।
कलम  से  मैं  उन्हीं  के  वास्ते  अंगार  लिखता  हूँ ।।

किसी जन्नत की  माफिक  सैफई  में जगमगाहट  है।
अंधेरों  से  तड़पते  गाँव  का  अधिकार  लिखता हूँ ।।

रोटियां  छीन  ली तुमने  जेहन  दारों  की   थाली  से ।
गुनाहे   सिलसिला  तेरा  यहाँ  सौ  बार  लिखता  हूँ ।।

बगावत  है यहाँ  गर सच  को लिख देना किताबों में ।
तो बागी हूँ  मैं  अपने  जीत की तलवार  लिखता हूँ ।।

         - नवीन मणि त्रिपाठी

पगली कुछ पहचान तो रख


थोड़ी  अपनी  शान  तो  रख ।
पगली कुछ पहचान तो रख ।।

सौदागर  सब   लूट  रहे   हैं ।
तू  अपनी  दूकान  तो  रख ।।

जेल  से   छूटा  वही  दरिंदा।
संसद का  सम्मान  तो रख ।।

फिर छापों पर बहस हो गयी।
बदला  सा  ईमान  तो  रख ।।

जंग  खेल   के  मैदानों  पर ।
उसका थोडा  मान तो रख ।।

हुई अदालत  में  हाजिर  वो ।
इसका भी गुणगान तो रख ।।

नज़र  जमाने की है तुझपर ।
मिर्च  और लोबान तो  रख ।।

हक    चरने   आएगा    नेता ।
ऊंचा  एक  मचान  तो  रख ।।

तरकस में  कुछ तीर  बचे हैं ।
हाथ  नया  संधान  तो  रख ।।

कायर  कहकर  भाग  रहा  है ।
अपनी  सही  जबान  तो रख ।।

 महगाई   से  कौन  बचा  है ।।
 चेहरे  पर  मुस्कान  तो रख ।।

खुदा  कहाँ  खोया है तुझसे  ।
गीता  और  कुरान  तो  रख ।।

          - नवीन मणि त्रिपाठी

बिक रही बाजार अस्मत आजकल


इस   कदर  रूठी   है  किस्मत  आजकल।
बे  वजह  लगती   है  तोहमत  आजकल।।

जिसने   तोडा   मुल्क   का  हर  हौसला ।
बन  रही  उसकी  भी  तुरबत  आजकल।।

चन्द   लम्हों    की    लगी   हैं   बोलियाँ ।
अब  कहाँ मिलती है मोहलत आजकल।।

ढूंढ   मत   इन्साफ   की   उम्मीद  अब ।
हर तरफ जहमत ही जहमत आजकल ।।

मत   कहो   मजबूरियों  को  शौक  तुम ।
बिक  रही   बाज़ार  अस्मत  आजकल ।।

लुट  गयी   जागीर   उस   अय्यास  की ।
वह मिटा  है उसकी  निस्बत आजकल ।।

गैर   मुमकिन   है   सराफत   हो    बची ।
हो   गयी  मशहूर   सोहबत   आजकल ।।

वास्ता  जिसका   खुदा   से  कुछ  न था ।
फिर  वहीँ  बरसी  है  रहमत  आजकल ।।

      --नवीन मणि त्रिपाठी

रविवार, 27 दिसंबर 2015

निर्मम

    *** निर्मम***
            -नवीन मणि त्रिपाठी 

      दिसंबर का आखिरी सप्ताह ......बरसात के बाद हवाओं के रुख में परिवर्तन से ठण्ढक के साथ घना कुहरा समाप्त होने का नाम ही नहीं ले रहा था । हलकी हलकी पछुआ हवाओं की सरसराहट ........... पाले की फुहार के साथ सीना चीरती हुई  बर्फीली ठंठक एक आम आदमी का होश फाख्ता करने के लिए काफी थी । पिछले पन्द्रह दिनों से सूर्य देव के दर्शन नहीं हुए थे । छोटी छोटी चिड़ियाँ भी पेट की लाचारी 
की वजह सी निकल तो आती परंतु  फुदकने के हौसले बुरी तरह पस्त नज़र आ रहे थे । कुहरे में का अजीबो गरीब मंजर पूरा दिन 
टप.........टप      ......टपकटी शीत की बूंदे......शहर का तापमान एक दो डिग्री के आसपास ठहरा हुआ .......। अखबारों में मवेशियों और इंसानो की मौत की ख़बरें  आम बनती जा रही थी । कम्बल रजाई सब के सब बे असरदार हो गए , ज्यादा तर घरों में अलाव जलने लगे ।  सरकारी इन्तजाम में चौराहे पर अलाव जलने लगे । सर्दी का आलम बेइंतहां कहर बरपा कर रहा था  ।


     शाम सवा पांच बज चुके थे । मैं अपने सहकर्मी विनोद के साथ गेट पर रुक कर ड्यूटी समाप्ति की घोषणा करने वाले सायरन की प्रतीक्षा कर रहा था । विनोद के पैरों  में चोट थी इसलिए वह मेरी ही बाइक से आजकल आता जाता था । फैक्ट्री का सायरन बजते ही ड्यूटी समाप्त हो गयी । तीन किलो मीटर दूर अपनी कालोनी के लिए नेशनल हाई वे पर बाइक से चल रहे थे तभी रोड पर एक बुड्ढे को सड़क पार करते हुए देखा । बुड्ढा चार पांच कदम चलने के बाद लड़खड़ा कर  सड़क पर गिर गया । तब तक मेरी गाड़ी उसके करीब पहुच गयी । मैंने देखा उसके बदन पर फटा पुराना कुर्ता  मैली सी मारकीन की धोती एक ओबर साइज अध् फटा स्वेटर पैरों में दम तोड़ता सा एक हवाई चप्पल । उम्र यही कोई पचहत्तर से अस्सी के बीच । काफी कमजोर काया । मैंने गाड़ी रोक दी ।

    क्या हो गया बाबा जी ??? जल्दी उठिए नहीं तो गाड़िया आपको रौंद डालेंगी । 
    मैंने बाबा से कहा । 
बाबा ने थोड़ी कोसिस की और फिर खड़े हो गए । करीब दो तीन कदम ही चले होंगे और फिर लड़खड़ा कर गिर पड़े । तभी तेजी से  सामने  की ओर से आती हुई कार ने ब्रेक लगाया ।उसके ब्रेक लगाने से बाबा की जान तो बाच गयी अंदर से ड्राइवर की आवाज आयी " अरे बाबा मारना ही है तो किसी और गाड़ी से मरो । मैंने क्या बिगाड़ा है बाबा । इतना कहते कहते ड्राइवर ने गाड़ी बैक किया और साइड से होकर निकल गया ।बाबा वहीँ पड़े के पड़े । 
मुझे लगा बाबा को शायद अब मेरी मदद की जरूरत है । लगती है उन्हें कोई दिक्कत आ गयी है । 
अगर इनकी मदत नहीं की तो इसी अंधेरे में कुछ सेकेण्ड में अभी दूसरी कोई गाड़ी आएगी और बुड्ढे को रौंद कर चली जायेगी ।
    मैंने तुरंत बाबा की सुरक्षा के लिए रोड पर ही अपनी बाइक 
आड़ी तिरछी खड़ी कर दी । बाबा को रोड से उठा कर  मैं और विनोद दोनों मिलकर किनारे ले आए । फिर गाड़ी भी किनारे ले आये ।

     बूढ़े बाबा बार बार कुछ बताने का प्रयास कर रहे थे परंतु अस्पष्ट शब्द थे कुछ समझ पाना मुश्किल था । 


 मैंने इनसे पूछा " बाबा कहाँ तक जाना है आपको ? मैं आपको आपके घर छोड़ दूंगा ।"

 "बेइया " बाबा ने कहा था ।
क्या कहा बाबा बेइया ?? मैंने दोबारा स्पष्ट कराना चाहा बाबा ने अस्वीकृत में सर हिला दिया । 
बाबा ने फिर कहा बे ई या .....बे ई या.. 
क्या बेरिया .......???
बेड़िया......?? या बेलिया ???
बाबा सभी शब्दों को अस्वीकृत करते गए और वही बेइया की रट लगाये रखे ।
   अंत मुझे लगा शायद इनकी दिमागी हालत भी ठीक नहीं है ।

   मैंने उनकी हालत देख कर अपने घर चलने का आग्रह किया लेकिन बाबा तौयार नहीं हुए और एक बार फिर उठ कर खड़े हो गए और चलने लगे । बस चार कदम ही चले होंगे और बाबा फिर गिर पड़े । इस बार चोट भी ज्यादा लग गयी । बाबा को उठाया उन्हें चोट से थोडा चक्कर भी  आ गया था । 

बाबा को होश आने पर कलम कागज दिया गया शायद कुछ लिख सकें बाबा परंतु बाबा कुछ पढ़े लिखे नहीं थे । । बुड्ढे बाबा के घुटनों में बार बार गिरने से घाव हो गया था । मैने  विनोद की तरफ देखा और पूछ ही लिया -
" विनोद भाई क्या किया जाए इनका ? लगता है किसी बड़ी बीमारी की वजह से पीड़ित हैं । "
"नहीं भाई यह घर पर ले चलने लायक नहीं है । कही कुछ हो गया  तो और तबाही । ऐसा करते हैं इसे क्यों न थाना तक पंहुचा दिया जाए । थाने वाले जरूर बाबा को घर तक पंहुचा देंगे ।"

   विनोद की बात में दम था । बर्फीली ठण्ढक के प्रकोप से बाबा की जान जाने की सम्भावना थी ।

विनोद ने एक नज़र घड़ी देखी 
और फिर अचानक कुछ शब्द निकल पड़े .........,,,,,,,,"।

विनोद ने कहा 

देखिये इस रास्ते पर इतने सारे लोग गुजर गए किसी ने बाबा की कोई खोज खबर नहीं ली लोग इन्हें छोड़ कर आगे बढ़ते रहे । आप क्यों रुके हैं ? इनको अब इनके हाल पर छोडो और आगे बढ़ो । यह सब फालतू का कार्य है । आपने इनकी जान बचा दी अब आप की ड्यूटी समाप्त हो गयी । बहुत मिलेंगे 
दाता धर्मी  ।" 
विनोद की बात जरूरत से ज्यादा प्रैक्टिकल लगने पर मैंने टोक दिया ।

"अरे भाई विनोद जी इतनी पढाई लिखाई की इतनी सारी नैतिक

 शिक्षा की किताबे पढ़ी ..... कर्तव्यों को निभाने का वक्त आया तो भाग जाएँ ??? यह उचित तो नहीं यार ।
चलो इसे किसी सुरक्षित स्थान पर 
कर दिया जाये जहाँ से इनकी पहचान हो सके और अपने घर यह पहुँच जाएँ ।
    चलो अब बहुत हो गया लाओ बाबा को गाड़ी पर बैठाओ ले चलते हैं इन्हें थाने पर ही छोड़ते हैं । 

   थोड़ी देर बाद हम थाना पर पहुच गए । इंचार्ज महोदय गस्त पर थे । ऑफिस में दीवान जी को बाबा की पूरी कहानी बताई । दीवान जी ने बाबा को ओढ़ने बिछाने का कम्बल दिया । बाबा से थोड़ी पूछ ताछ की कोशिस कर  यथास्थिति से अवगत हो गए । मैंने  अपना नाम पता नोट कराया और सीधे घर आ गया  ।


     बाबा को सुरक्षित स्थान पर छोड़ आने से मेरे मन को बहुत शांति मिल रही थी । जीवन में पहली बार 

किसी असहाय की सेवा करके मन 
गर्वान्वित महसूस कर रहा था ।

      घर पर देर में आया था । पत्नी का मूड आफ था पहुचते ही पहले सवाल की फायरिग हो गई 

" कहाँ थे अभी तक?? "
घर पर क्या है क्या नहीं कुछ 
खबर भी है आपको ? 
   अभी तक दूध और सब्जी नहीं आया और आप को पिकनिक 
करने से फुरसत ही कहाँ और..........
पत्नी की बातें काटते हुए मैंने कहा । प्लीज शांत हो जाओ देवी । पहले बात को समझ तो लो फिर पूरी बात कहना । 
  बुरी तरह फंस गया था । आज एक बुड्ढे की जान बचा के आया हूँ । अगर मैं नहीं होता तो रोड पर मर जाता ......और तुम मिजाज ही 
गर्म किये जा रही हो । 
सारी कहानी सुनने के बाद पत्नी 
धीरे धीरे सामान्य हो गई । रात्रि भोजन के उपरांत कब नींद लगी पता ही नहीं चला ।


    काफी रात में दरवाजा खट खटाने की आवाज आयी । घडी में रात एक बजे थे । मैंने दरवाजा खोला तो देखा बाहर

 एक पुलिस वाला खड़ा था । 
मुझे देखते ही बोला "क्या त्रिपाठी जी आप ही हैं जो शाम को थाने पर गए थे ?"
   "जी हाँ भाई मैं ही हूँ । कहिये इतनी रात में कैसे परेशान हो गए ।"
    "दरोगा जी गस्त से आ गए हैं आपको अभी तुरंत बुलाये हैं । चलिए आप ।" पुलिस वाले की बातों 
में हल्का रौब मुझे साफ नज़र आ गया था । 
"बस दो मिनट रुकिए कपडे चेज 
करके चल रहा हूँ ।" मैंने उस से विनम्रता पूर्वक कहा ।

   मैंने बाइक स्टार्ट किया । मन में एक अजीब से बेचैनी । मोहल्ले के 

लोगों ने थोड़ी पुलिस को देख के थोड़ी ताक़ झांक की थी । लोग अपने मन में जाने क्या क्या कयास 
लगा रहे होंगे । दरोगा आखिर मुझे 
सुबह भी तो बुला सकता था रात में क्यों बुलाया । सुना है यह दरोगा पब्लिक से बहुत पैसे कमा रहा ।
इस प्रकार तरह तरह के विचार मेरे मन में आ और जा रहे थे । बस अब थाना पहुच गए और थानेदार  महोदय की आफिस में पंहुचा तो पता चला साहब अभी अभी गस्त से लौटे हैं इस वक्त हवालात में दो लड़को की पिटाई कर  रहे है । सिपाही ने कहा यही बैठो यहीं मिलेगे ।
   हवालात से दरोगा जी के डंडो की आवाज और रह रह कर तेज जोरदार गालिया और चिल्लाने और कराहने की आवाजे तेज हो जाती थी ।जोर दार गालियां ......तड़ाक ,...........चटाक  फिर भयावह रूदन ....
मुझे तो ऐसा लग रहा था जैसे मैं भी कोई अपराधी हूँ बस अगला नम्बर मेरा ही है । इतना क्रूरतम कार्य करने के बाद उसकी मनः 
स्थिति सामान्य होने की कल्पना करना मेरे बूते की बाहर की बात थी । यह सब सोच ही रहा था कि दरोगा जी कमरे में पहुच गए ।

दरोगा जी ने देख के घूरा उसके बाद बोल पड़े 


''तो आप हैं मिस्टर त्रिपाठी !''

पता है तुम्हे मिस्टर ? ......जिस 
आदमी को तुम यहां छोड़ गए हो उसे मिर्गी की तरह दौरा आया था । लग रहा था बचेगा ही नहीं । और अब तेज बुखार से काँप रहा है ।

      त्रिपाठी जी आप तो बड़े दयालू बड़े धर्मात्मा लगते हो जी । रोड चलते दीन दुखियों पर उपकार किया करते हो जनाब । 

जितने कूड़े रोड पर मिलते हैं सब 
थाने भेज कर धर्मात्मा बन जाते हो । मुझे भी तुम्हारे जैसे लोगों की ही तलास है । सैकड़ो धाराएं हमारे हाथ में हैं उनमे से कुछ धाराएं ऐसे लोगों के लिए हैं जो थाने की नीद मुफ़्त में हराम करते हैं ।

     मैं इनकी सेवा के लिए नहीं बना हूँ । अगर यही सब करते रहे तो हो चुकी थानेदारी ।


    अगर यह बुड्ढ़ा मर मुरा जाता तो ये साले अखबार वाले सबसे पहले पुलिस वालो को हेडलाइन बना देते हैं । लेना एक न देना दो ।.......और फिर इस थाने ने तुम्हारा क्या बिगाड़ा है जो ये बला यहां छोड़ गए । कोई धर्मशाला समझ रखा है क्या । त्रिपाठी जी 

मैं इसी केस में आप के ऊपर ऐसी धारा में चालान कर दूंगा कि 6 महीने तक जमानत नहीं होगी ।समझ में आयी बात ......"

     दरोगा जी ने बड़े रौब से अपनी बात कहते जा रहे थे और मेरे पास सुन लेने के अलावा और विकल्प ही क्या था ।

जी सर 
यस सर 
कहते कहते जुबान घिस रही थी । शराब के नसे में चूर दरोगा मेरी जरा सी नादानी से किसी भी स्तर को पार कर सकता था । आरगूमेंट करने का मतलब साफ़ था आ बैल मुझे मार ।

     एक लम्बा चौड़ा व्याख्यान सुनाने के बाद दरोगा जी ने कहा -

"ऐसा करो इस बुड्ढे को अस्पताल ले जाकर लावारिस में भर्ती करा दो । मैं अपना एक सिपाही तुम्हारे साथ भेज देता हूँ ।"

"जी सर आप भाई साहब को मेरे साथ भेज दीजिये मैं इन्हें अस्पताल में भर्ती करा दूंगा । "

      
      मैंने तुरंत सहयोगात्मक रवैया अपनाया ।

दरोगा जी ने कहा बुड्ढे को सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र पर भर्ती करा देना । अगर कोई दिक्कत हो तो मेडिकल कालेज लेकर चले जाना ।

     जी सर कहकर मैंने तुरंत बाबा को गाड़ी पर बैठाया और उसी बाइक पर पीछे सिपाही भी  बैठ गया । थाना से पांच किलो मीटर दूर स्वास्थ्य केंद्र की ओर रात सवा दो बजे भयंकर शीतलहर में गाड़ी चलाना किसी चुनौती से कम नहीं था लेकिन थाने के इस विषाक्त 
माहौल से तो बेहतर ही था ।

   करीब दो किलोमीटर दूर गाड़ी चली होगी तभी पीछे बैठे सिपाही को कुछ गीला और भीगने जैसा आभास हुआ । गाड़ी रोकने के लिए पीछे बैठे सिपाही ने आवाज दिया । मैंने गाड़ी रोक दी।

सीट पर देखा तो बाबा ने पेशाब कर दिया था । पेशाब देख कर सिपाही गुस्से से उस शक्ति हीन बुड्ढे पर उबल पड़ा और देखते ही देखते 
बुड्ढे को तीन चार तमाचा जड़ दिया ।

    "साला बुड्ढ़ा 

पेशाब जाना है या नहीं 
कुछ बताता भी नहीं साला .....पागल ।"
    
मैंने स्थितियों को संभालते हुए किसी तरह सिपाही को शांत कराया । उसे मानाने में काफी दिक्कत हुई । गाडी मैंने फिर से अस्पताल की ओर बढ़ा दी । कुछ ही पल में हम अस्पताल में दाखिल हो चुके थे । बाबा को खाली बेड पर लिटाया गया। डॉक्टर साहब आये चेक किया और कुछ दवा देकर रेफर टू मेडिकल कालेज की पर्ची बना दिया । अस्पताल में जगह खाली ही नहीं थी अतः हम तीनो  मेडिकल कालेज की 
ओर निकल पड़े ।
रास्ते में बाबा जैसे ही कमजोरी से सर दाहिने या बाएं ले जाना चाहे 
तो सिपाही महोदय तुरंत एक चाटा बाबा को रशीद कर दें ।

      सिपाही की यह हरकत मुझे बहुत बुरी लगती ।मैंने  मना किया फिर भी नहीं माने । अगले कुछ पलों में हम लोग मेडिकल कालेज पहुच गए ।




    बाबा को भर्ती करा दिया गया । बाबा का इलाज शुरू हो गया  । नर्स ने तुरंत बाबा को दो इंजेक्शन दिया । 


      

 बाबा जी को ग्लूकोज डिप्स चढ़नी शुरू हो गयी थी । हॉस्पिटल में एडमिट देख कर मुझे बहुत शांति मिली । बार बार मन में विचार आता कास बाबा का अपना कोई परिवार आज उनके साथ होता तो बाबा की ऐसी गति क्यों होती। यह बेवकूफ सिपाही जिसके अंदर कोई मानवता ही नहीं ...... वह जल्लाद दरोगा जो सिर्फ फायदे के लिए जीता है ..... जिन्हें कभी विभाग की ओर से कोई नैतिक शिक्षा दी ही नहीं गयी । समाज  की भ्रष्टतम इकाई 
बन चुकी है यह पुलिस । अब शरीफ इंसान का थाने जाना भी गुनाह हो जाता है..........|

    

      मैं अस्पताल से बाहर निकल ही रहा था तब तक नर्स ने एक लम्बा चौड़ा दवा का पर्चा पकड़ा दिया । मैंने भर्ती किया था इसलिए दवा खरीदने का नैतिक दायित्व मेरा ही था । 
पर्चा लेकर दूकान गया । कुल 1600 की दवा थी । मेरी जेब में मात्र 100 रूपये ।
     साथी सिपाही से उधार माँगा तो उसने कहा - 
"इतने पैसे मेरी जेब में नहीं । इतना रुपया लेकर हम लोग नहीं चलते । ऐसा करो त्रिपाठी जी ......महराज ....अब अपने कर्तव्य इति श्री करो । ऐसे भला करते रहे तो जल्दी ही सड़क पर आ जाओगे ।
चलो गाडी स्टार्ट करो हमे थाने छोडो.........इस बुड्ढे साले की वजह से रात तो वैसे ही कबाड़ा हो चुकी है ।
अब यह तमाशा बन्द करो । सुबह 
हो गयी है । हमारे भी बी बी बच्चे हैं । सुबह ड्यूटी भी है । "
     एक पल सोचने के बाद निर्ममता से  मैंने भी गाडी स्टार्ट कर दी और घर चल पड़े ।
       ***इति*** 
  नवीन मणि त्रिपाठी
         

शुक्रवार, 4 दिसंबर 2015

महफ़िलों में सवर गईं जुल्फ़ें


सलाम  ए  इश्क दे गयीं  जुल्फे ।
महफ़िलों  में सवर गयीं जुल्फे ।।

बड़ी   सहमी   हुई  अदाओं  में ।
तिश्नगी  फिर बढ़ा गयीं जुल्फें ।।

खत्म थे  हौसले  जज्बातों  के ।
कुछ उम्मीदें जगा गयीं जुल्फे ।।

उसे कमसिन न कहो तुम यारों ।
आज लहरा के वो गयी जुल्फे ।।

चाँद  पर  चार  चाँद  है   लगता
गाल पे जब भी छा गयी जुल्फें ।।

जख्म इक उम्र से भरा ही नहीं ।
तीर दिल पर चला गयीं जुल्फें ।।

मेरी  उल्फत की तू बनी शोला ।
घर मेरा फिर जला गयीं जुल्फें ।।

उम्र   गुजरी  है  किन  तजुर्बों से ।
आइना कुछ  दिखा गयीं जुल्फें ।।

बहुत  उलझी हुई  बिखरी बिखरी ।
रात  का  सच  बता गयीं जुल्फें ।।

- नवीन मणि त्रिपाठी

-----ग़ज़ल ------

फना   के   बाद  भी  मेरा  पता  लेकर  गया  कोई ।
कब्र  पे आशिक़ी का कुछ  सिला  देकर गया कोई ।।

हरे  है जख्म  वो  सारे वो यादेँ भी जवां अब तक ।
दर्द   की   बेसुमारी   पर  यहाँ  रोकर  गया  कोई ।।

जूनूने ख्वाब था या फिर हकीकत थी खुदा जाने ।
गुलशन ए इश्क के दर से  दफा होकर गया कोई ।।

आसमा  की  बुलंदी से  हसरतों  ने  कहा  हमसे ।
ज़मी  पर आ रही  हूँ  मैं लगा ठोकर  गया  कोई ।।

हरम की किस्मतों में इश्क लिक्खा ही नहीं जाता।
आरजू  ने  जो घर माँगा  वहां  सोकर गया कोई ।।

हमारे  अंजुमन  की  दास्ताँ   न  पूछ  ऐ   हमदम ।
यहाँ मतलब  परस्ती में  वफ़ा खोकर गया  कोई ।।
      
          - नवीन मणि त्रिपाठी

हमारे ज़ख्म की उलझी सी कहानी तू है


---ग़ज़ल---

मेरी  खामोश  मुहब्बत  की  निशानी तू  है ।
हमारे जख़्म की  उलझी  सी कहानी तू है ।।

जब भी देखी  तेरी तश्वीर  क़यामत आयी।
कैसे कह दूँ कि मेरी आँख का पानी तू है ।।

दर्द की इम्तहाँ बन करके गुजरती अक्सर ।
मेरे ख़्वाबों की महकती  सी जवानी तू हैं ।।

मैकदे में तो  बहुत जाम हैं  लेकिन  साकी ।
होश  आए   न  वो  शराब  पुरानी  तू   है ।।

बड़ी मासूमअदाओं से कत्ल की साजिश ।
मेरी  कातिल  मेरी नज़र में  शयानी तू  है ।।

खिजां ज़ालिम है हसरतों  के उड़ गए पत्ते।
फ़िजा ए शक्ल में मौसम की रवानी  तू है ।।

न  इंतजार का आलम तू  पूछ अब मुझसे ।
न  मुकद्दर  में  हो  वो शाम  सुहानी   तू  है।।

कोई अफ़साना लिखू या लिखूँ  .ग़ज़ल तेरी ।
दरमियाँ   इश्क   जमाने  की जुबानी  तू  है ।।

               --नवीन मणि त्रिपाठी

हम शबे वस्ल में सिर्फ जलते रहे


उम्र  भर   कुछ   सवालात   चलते   रहे ।
हम  शबे  वस्ल   में   सिर्फ  जलते   रहे ।।

बेवफा  तुमने  कह   तो  दिया  फ़ख़्र  से।
रात  दिन  अश्क  आँखों में  ढलते  रहे ।।

जब  तेरी   शोख   नजरे  इनायत   हुई ।
तुम   मिलोगे  कभी  ख्वाब  पलते  रहे ।।

क्या  भरोसा  करू  तेरीे  जज्बात  का ।
तुम भी मौसम के माफिक बदलते  रहे ।।

फ़िक्र  बदनामियों   की   उन्हें  भी  रही ।
वह  नकाबों   में  घर  से  निकलते  रहे ।।

कुछ   तो   रुस्वाइयां  बर्फ   मानिंद  थीं ।
हसरतों   को   लिए  हम  पिघलते  रहे ।।

इक  तिजारत से दौलत  दफ़न  हो  गयी।
कीमत   ए   हुश्न  पर   हाथ  मलते  रहे ।।

ताल्लुक   मैकदे   की   हवाओं  से  था ।
वह    दुपट्टे   में   अपने  सम्भलते   रहे ।।

        --  नवीन मणि त्रिपाठी

ग़ज़ल


इस   कदर  रूठी   है  किस्मत  आजकल।
बे  वजह  लगती   है  तोहमत  आजकल।।

जिसने   तोडा   मुल्क   का  हर  हौसला ।
बन  रही  उसकी  भी  तुरबत  आजकल।।

चन्द   लम्हों    की    लगी   हैं   बोलियाँ ।
अब  कहाँ मिलती है मोहलत आजकल।।

ढूंढ   मत   इन्साफ   की   उम्मीद  अब ।
हर तरफ जहमत ही जहमत आजकल ।।

मत   कहो   मजबूरियों  को  शौक  तुम ।
बिक  रही   बाज़ार  अस्मत  आजकल ।।

लुट  गयी   जागीर   उस   अय्यास  की ।
वह मिटा  है उसकी  निस्बत आजकल ।।

गैर   मुमकिन   है   सराफत   हो    बची ।
हो   गयी  मशहूर   सोहबत   आजकल ।।

वास्ता  जिसका   खुदा   से  कुछ  न था ।
फिर  वहीँ  बरसी  है  रहमत  आजकल ।।

      --नवीन मणि त्रिपाठी

रविवार, 8 नवंबर 2015

चल नकाबों में ज़माने की नज़र पाक नहीं


----***ग़ज़ल***-----

चल  नकाबो  में  जमाने  की नज़र  पाक  नहीं ।
कीमती  हुश्न  ये  हो  जाए  कही  ख़ाक  नहीं ।।

अजनबी  बनके  गली  से  यूँ  गुजरना उसका ।
दिल जलाने की थी साजिश ये इत्तिफ़ाक नहीं ।। 

ताल्लुक  वक्त  के   साये  में   बदलते  अक्सर ।
फितरते  इश्क  में जिन्दा  कोई  इख़लाक़ नहीं ।।

रियासत   डूब   न   जाए    लहू   परस्ती   में ।
है  ढलानों   पे  आफताब ,यह  मजाक  नहीं ।।

मुन्तजिर   हो  के  हैं गुजरी  तमाम  रात यहां ।
मेरी  उम्मीद का  दामन  अभी  हलाक  नहीँ ।।

नाम  लिखती  रही   वो  रेत  पर  तन्हाई  में ।
लोग  कहते  हैं  जिसे  वो  तेरे  फिराक  नहीं।।

वो  रकीबों  के  मुहब्बत  पे  बे  हिचक  बोली ।
ये  तो  रुसवाई  थी  मेरा  कोई  तलाक  नहीं ।।

पसलियां गिन  के आबरू  न मिटा तू उसकी ।
मुद्दतों  से  उसे   मिलती  कोई  खुराक   नहीं ।।

            -नवीन मणि त्रिपाठी

फ़ना के बाद भी मेरा पता लेकर गया कोई


-----ग़ज़ल ------

फना   के   बाद  भी  मेरा  पता  लेकर  गया  कोई ।
कब्र  पे आशिक़ी का कुछ  सिला  देकर गया कोई ।।

हरे  है जख्म  वो  सारे वो यादेँ भी जवां अब तक ।
दर्द   की   बेसुमारी   पर  यहाँ  रोकर  गया  कोई ।।

जूनूने ख्वाब था या फिर हकीकत थी खुदा जाने ।
गुलशन ए इश्क के दर से  दफा होकर गया कोई ।।

आसमा  की  बुलंदी से  हसरतों  ने  कहा  हमसे ।
ज़मी  पर आ रही  हूँ  मैं लगा ठोकर  गया  कोई ।।

हरम की किस्मतों में इश्क लिक्खा ही नहीं जाता।
आरजू  ने  जो घर माँगा  वहां  सोकर गया कोई ।।

हमारे  अंजुमन  की  दास्ताँ   न  पूछ  ऐ   हमदम ।
यहाँ मतलब  परस्ती में  वफ़ा खोकर गया  कोई ।।
      
          - नवीन मणि त्रिपाठी

मंगलवार, 27 अक्तूबर 2015

तेरी चाहत में सनम दूर तक बदनाम हुआ ।


तेरी जुल्फों से आज मैं भी  कत्लेआम  हुआ ।
तेरी चाहत में सनम दूर तक  बदनाम  हुआ।।

तू  मुहब्बत  है  मेरे  रूह   के  तस्सवुर   की ।
ख़ास चर्चा तेरी महफ़िल में सुबहो शाम हुआ।।

मिटी  है  हस्तियां  जब  भी  उठी  नजर तेरी ।
झुकी पलक तो  नजारो  से  इंतकाम  हुआ ।।

आबनूसी  है  तेरे   गेसुओं   की   यह   रंगत ।
जहाँ बिखरे हैं वही शब्  का  इंतजाम  हुआं ।।

ये  नज़ाकत  ये  नफ़ासत  ये  हिमाक़त तुझमें ।
मेरे  महबूब  बता  मुझ पे  क्यों इल्जाम  हुआ।।

तेरी  अदा  की  खुशबुओं  से  मचलता  है शहर ।
मेरा   किस्सा  मेरी  खता  पे  क्यूँ  तमाम  हुआ ।।

               --नवीन मणि त्रिपाठी

गर्दिशे मंजर के आलम में नहीं आती सहर


ग़ज़ल 

जल  रही शब्  मुद्दतों से  यूँ ही  ढल जाती  उमर ।
गर्दिशे  मंजर   के  आलम  में  नहीं आती  सहर ।। 

बे  अदब   जब  आशनाई   हो  चुकी  दीदार  हो ।
स्याह  सी  तन्हाइयो   में  उम्र   हो  जाती  बसर ।।

खैरियत की गुफ्तगूं  जब कर्  गए आलिम यहां ।
बद  जुबानी हरकते भी  मुफ़लिसी  लाती शहर ।।

फिर  हुई  तस्दीक़  उसके  जुर्म  की  हर  इम्तहाँ।
जुल्म की हर दास्ताँ  बेख़ौफ़  कह  जाती नज़र ।।

बदसलूकी  रिन्द  ने कर  दी  यहां  साकी  से है ।
अब हरम से  मयकदे तक भी नहीं जाती डगर।।

ये  तपिस  तो  तिश्नगी  की  शक्ल  में आबाद  है।
वास्ते  साया  ये जुल्फे  बन  के हैं आती  शज़र ।।

सुर्ख रुँ  होती   गयी  वो  भी  हया  के  दरमियाँ ।
बेखुदी  में  आरजू  क्यों  ढूढ़  कर  लाती  ज़हर ।।

फ़िक्रपन की  जुस्तजूं  ही जिंदगी  का  फ़लसफ़ा।
ख्वाहिशे अंजाम तक भी  कर नहीं पाती सफ़र ।।

       - नवीन मणि त्रिपाठी

रविवार, 11 अक्तूबर 2015

ग़ज़ल


(शरीफ़ साहब दो शब्द मेरे भी सुन लीजिये )
               ------ग़ज़ल------

मुखौटा  इस  ज़माने  में कभीअच्छा नहीं  लगता ।
हकीकत हो  फ़साने में कभी अच्छा नहीं लगता ।।

छोड़ घर को गया था जो गुलामी दे दिया उसको ।
मुहाज़िर  हो निशाने में कभी अच्छा नहीं लगता ।।

शरीफ़ो के लहू से  हाथ हो जिसके  सने अक्सर।
वो जाए  फिर मदीने में कभी अच्छा नहीं लगता ।।

सरीयत से तुम्हारा वास्ता  मुमकिन नहीं  लगता ।
तू अपने कत्लखाने में कभी अच्छा नहीं लगता ।।

कद्र होगी मुख़ालिफ़ की तू रख ज़ायज उसूलो को।
नियत के डगमगाने में कभी अच्छा नहीं  लगता ।।

दुश्मनी पर वजूदे शाख़  जिन्दा हो यहां जिसकी ।
दोस्त कहकर बुलाने में कभी अच्छा नहीं लगता ।।

बहुत नापाक होगा ये जो तुझको पाक मैं कह दूं ।
राज दिलका छुपाने में कभी अच्छा नहीं लगता ।।

सपोले पालने  वालों से  दुनिया हो  चुकी वाकिफ़ ।
उसे  फिर बरगलाने में कभी अच्छा नहीं लगता ।।

शिकस्तों से  मुहब्बत है तुम्हारे  मुल्क  के अच्छी ।
तुम्हें अब आजमाने  में कभी अच्छा नहीं लगता।।

 
   --नवीन मणि त्रिपाठी

चाँद यूँ ही मचलता रहा


----***ग़ज़ल***---

चाँद   यूँ    ही   मचलता   रहा।
रंग  ए   चेहरा   बदलता   रहा ।।

जुर्म   है इस  शहर  में  अमन ।
ये  भी   मुद्दा   उछलता   रहा ।।

जब  लगी  आसना  पर  नज़र ।
वो  जहर  को  उगलता   रहा ।।

कह   न   दे  कुछ जमाना उसे।
होश   खोकर   सम्भलता   रहा ।।

दिल्लगी  इश्क  से  क्या   हुई।
हसरतों   को  मसलता   रहा ।।

खत   गिराकर   गयी  राह  में।
जब भी घर  से निकलता रहा।।

बेकरारी   भी  क्या   चीज   है ।
रातभर   बस    टहलता   रहा ।।

गर्म   लब   पे  तस्सवुर   तेरा ।
बे  वजह   ही  पिघलता  रहा ।।

    -नवीन मणि त्रिपाठी

बुधवार, 7 अक्तूबर 2015

एक अल्बम के लिए प्ले बैक सांग


रेल जवानी

छुक छुक छुक ।

रुक बाबा रुक बाबा

रुक  रुक  रुक ।।

बाली उमरिया सिगनल न दे

कैसे रहूंगी चुप चुप चुप ।।

रेल जवानी .....
रुक बाबा ......

ओ माय डैड

ओ माय मॉम ।

माय एज बाउंडेशन

वैरी  राँग ।।

मेरी जुबाँ पे उसका नाम ।

आई डोंट नो राइट

आई डोंट नो राँग ।।


आज बाउंड्री कूद मिलूंगी

लव न होगा छुप छुप ।।

रेल जवानी .......
रुक बाबा ........


माय बॉय फ्रेंड इज

ऑन व्हाट्स एप

 हम फ्रेंड्स से करते है

गप शप।

हमे घूर घूर के

देखे सब

प्रोफाइल करती

दिल किडनेप ।

रिक्वेस्ट हजारो आये है

देखो मेरी

फेस बुक कूक बुक ।।

रेल जवानी छुक छुक छुक
रुक बाबा रुक बाबा रुक रुक रुक ।।


हेल्लो हेल्लो माई  पेरेंट्स ।

यस यस

आई हैव नो पेशेंस ।

खो गया मेरा

कॉमन सेन्स ।

मेरे दिल का करो

सब मेंटिनेंस ।

जब  भी  देखे आशिक हमको

गयी नजरिया

झुक झुक झुक ।।


रेल जवानी .......
रुक बाबा रुक बाबा......


     --नवीन मणि त्रिपाठी

शुक्रवार, 11 सितंबर 2015

             एक सन्देश  आरक्षण समर्थको के नाम 

आज का सवर्ण बहुत दीन हीन अवस्था में जी रहा है । आज उसके पास न रहने को घर न पहनने को वस्त्र 
और दो वक्त की रोटी भी नसीब नहीं है । वह रिक्शा चलाता है । जिन्हें दलित कहते हैं उन्हें रिक्शे पर घुमाता है । वह जिन्हें दलित कहते हैं उनके घर नौकर  की तरह काम करता है । सवर्णों के घर की महिलायें
ब्यूटी पार्लर चलकर जिन्हें दलित कहते हैं उनके घर की औरतों को सजाती रहती हैं सिर्फ पेट पालने के लिए । इस तरह के हजारों उदहारण आपके समाज में बहुत सुगमता के साथ देखने को मिल जाएंगे । उसके बाद भी जाति के नाम पर दलितों को आरक्षण और सवर्णों के बच्चों के बच्चों के हाथ में कटोरा यह कहाँ 
का न्याय है । मेरा सिर्फ नाम के दलित भाइयो से अनुरोध है सुरक्षित भारतीय लोकतन्त्र के लिए वह भी आरक्षण विरोध में शामिल होकर राष्ट्र प्रेम का परिचय दें ।

मंगलवार, 8 सितंबर 2015

सवर्णो के लिए कुछ तो रियायत कीजिये साहब

सवर्णों  के  लिए  कुछ  तो रियायत कीजिये  साहब ।
ये  भूखे  मर  रहे   रोटी   इनायत   कीजिये  साहब ।।

फांकता धूल  सड़को  पर जिसे काबिल कहा सबने ।
फकाना  और  क्या  क्या है हिदायत दीजिये साहब ।।

जहाँ  तालीम  की   खातिर  बिका  है  बाप  बेचारा।
उसे हक़  है निवाले  का  निहायत  दीजिये  साहब ।।

तड़पते  भूँख  से बच्चों  की  आँखों  में  बगावत है ।
जले  न  मुल्क  ये  तेरा  रिवायत  लीजिये   साहब ।।

तरक्की  है  वहां ठहरी जहाँ  काबिल की इज्जत है ।
अपाहिज के लिए न अब  हिमायत कीजिये साहब ।।

मुल्क  होगा कभी  मेरा  था आजादी  का ये मकसद।
न हिंदुस्तान को अब फिर बिलायत  कीजिये  साहब ।।

है  कुदरत के  वसूलों  में  जो   बेहतर  है वो  छीनेगा।
अमन का घर गिराकर मत शिकायत कीजिये साहब।।

रोजियां   छीन  ली  उसकी  गरीबी  मौत  से   बदतर।
जात  ऊँची  बताकर  मत  किफ़ायत कीजिये साहब।।

                             --नवीन मणि त्रिपाठी

बुझी बारूद पर यकीन बनाए रखिये

---***ग़ज़ल***---

बचे  न   मुल्क   वह   चिराग   जलाए   रखिये ।
उन  लुटेरों  की  सियासत  को  चलाए   रखिये ।।

खा  गए  शौक  से  चारा  जो  मवेशी  का यहां।
उनकी खिदमत में इलेक्शन को सजाये रखिये।।

फिर  से मण्डल की दगी तोप ले  के निकले है।
बुझी   बारूद   पर   यकीन   बनाये   रखिये ।।

जात  के  नाम पर  तक़रीर  है खुल्लम खुल्ला।
कुछ  अदालत  पे  नजर अपनी जमाये रखिये।।

सिर्फ घोटाला ही मकसद हो जिनकी कुर्सी का।
वोट  का  भाव  तो  अपना  भी  बढ़ाये  रखिये।।

कुर्सियां   नोचते  गिद्धों  की   तरह   ये आलिम।
इनकी    तारीफ   चैनलो   से   सुनाये  रखिये ।।

वो   तरक्की   की  बात  भूल   से  नहीं  करते ।
राज  जंगल  की  बात  मन  में  बिठाये  रखिये।।

कुतर  कुतर  के खा गए जो मुल्क की इज्जत।
उनकी इज्जत के लिए खुद को मिटाये रखिये ।।

                   -नवीन मणि त्रिपाठी

इश्क बिकने वहीँ जाता


उम्र के दायरे  से अब  मुहब्बत  का  नहीं नाता।
जहाँ  जेबों में गर्मी हो इश्क बिकने वहीँ जाता ।।

जमाने  का  यहाँ बिगड़ा  हुआ दस्तूर  है या रब ।
सेठ  बाजार  की  कीमत  बढ़ाने  है  वहीँ आता।।

कब्र में पाँव हैं  जिनके  वो दौलत  के फरिस्ते  हैं ।
मिजाजे आशिकी के फख्र का मंजर नहीं जाता ।।
सियासत दां कोई तालीम अब मत दे ज़माने को ।
जिन्हें अपने मुकद्दर में शरम लिखना नहीं आता ।।

तेरी बिकने की फितरत थी बिकी है हसरते तेरी।
मुहब्बत नाम से  जारी  तेरा  फतबा नहीं भाता।।

यहां  कानून  के  रंग में  हूर  की  कीमते खासी ।
इश्क का दर्ज क्या खर्चा जरा देखो बही खाता ।।
           नवीन मणि त्रिपाठी 

गुरुवार, 27 अगस्त 2015

दिल लगाने से क्यूँ वो ख़बरदार है

----***ग़ज़ल***----

कुछ   तिलस्मी   लगा,  ये  तेरा  प्यार  है।
बेवफा      कैसा  तेरा,   ये   इकरार   है ।।

रोटियों   में  थी   खुशबू   तेरे  हाथ  की ।
चाहतो  की  भी  कैसी   ये  दरकार   है ।।

ख्वाब  में  रोज  आती  हो  जाने  वफ़ा।
ख्वाहिशों  की  तू  महंगी  सी बाजार है।।

लिख दिया तुमने खत में सबक है मगर ।
क्या   करूँ   हुश्न  तेरा   गुनहगार   है ।।

अब  वफाओं  के  ढूढो  न  मोती  यहां ।
ये  मुहब्बत  बनी   आज   व्यापार   है।।

उस  नदी से भी अब  वास्ता  क्या  रखूँ ।
जो  बहा ले  गयी  मुझको  मझधार  है।।

जिनके  मीठे  बचन   दिल   चुराते   रहे ।
अब  जुबाँ  पर वहां  खार  ही  खार  है ।।

उसकी  फितरत बदलती  रही  रात  दिन ।
दिल   लगाने  से   क्यूँ  वो  खबरदार  है।।

         -नवीन

ग़ज़ल

उजड़ जाएगी  ये बस्ती ख़ाक हो जाएगा  कसबा ।
तेरी जुल्फे अदा करके गयी दिल में बहुत बलबा ।।

बड़ी शिद्दत से तुमने पढ़ लिया मेरी ग़ज़ल लेकिन ।
तेरी  खामोशियो  की  दास्ताँ  से  है  कहर बरपा ।।

तुम्हारी  चाहतों  का  दर्द है लिखती  कलम मेरी  ।
तुम्हारी  याद  में मैं रात भर हूँ किस तरह तड़पा । ।

शेर  मेरे  पढ़े  तुमने  तसल्ली  हो  गयी  दिल  को ।
मुहब्बत  हो  मेरी पहली  तुम्हारा ख़ास है रुतबा ।।

परायी  हुश्न  हो पर  दिल  चुराने का हुनर  तुझमे  ।
तेरी  कातिल निगाहों  ने किया छोटा  मेरा रकबा ।।

जो दावत  थी  तेरी  झूठी  उसे  सच  मानता हूँ मैं ।
मिलूंगा मैं  सनम  तुझको जहाँ पर है तेरा कुनबा ।।

बेरहम बादलों ने फिर चुरा लिया उसको

----***ग़ज़ल ***----

ख्वाहिशे  चाँद  ने  यूँ  ही  बुला  लिया हमको।
मेरी  नज़र  से  कोई  दूर  कर  लिया  तुमको।।

ईद   का   जश्न   मनाना  मेरी   मजबूरी   थी।
बड़ी  खामोशियों से फिर दबा लिया गम को।।

या  इलाही  तेरी  मगरूरियत  भी  जालिम  है ।
मेरे जख्मो का अफ़साना सुना लिया  उनको ।।

तेरी  पनाह   में  मुमकिन  थी  जिंदगी  अपनी।
दौरे  मुफ़लिस  में  थामैंने भुला लिया रब को ।।

यहाँ   इबादतों   पे , बददुआ  ही  हासिल   है ।
उसके सज़दे ने फिर हैरत में ला दिया सबको।।

मेरा  यकीन  भी  किस्मत का गुनहगार बना।
मेरी वजह से क्यों तुमने मिटा लिया खुदको।।

थी  तमन्ना  कि  मेरा  चाँद  निकल आएगा ।
बेरहम  बादलों  ने  फिर  चुरा लिया उसको ।।

       --नवीन मणि त्रिपाठी

ग़ज़ल

जवानी वक्त था  जालिम  तरस  जाते  थे  दीवाने ।
चाँद कह कर जले है रात दिन तुझ पे वो परवाने ।।

उम्र   पूरी  गुजारी  सिर्फ   तेरी   चाहतें  लिखकर ।
जेहन  में आज भी जिन्दा मिले जितने मुझे ताने ।।

शबाबो  की अदा  फिर जुल्फ लहराना बनी चर्चा ।
बेवफा  से  मेरी  नज़रें  लगी  थी  इश्क  फरमाने ।।

तौहीने  मुहब्बत का  खुदा ने  हक  दिया  तुझको ।
कातिलाना तस्सवुर में  लिखी तुम रोज अफ़साने ।।

हमारे  खत  को  न  पढ़ना फाड़कर  यूं जला देना।
जख्म भूला कहाँ मुझको लगी जब जुल्म को ढाने ।।

वक्त फिसला तेरी मुट्ठी से फिसली आशनाई सब ।
नहीं आते है अब  बादल तेरे आँगन  को बरसाने ।।

सनम  जब हुश्न ढल जाने  की  बारी आ गयी तेरी ।
फेर  कर  मुँह  गए  सारे  जो  तेरे  बिन  थे  बेगाने ।।

         - नवीन मणि त्रिपाठी

टुकड़े टुकड़े में यादगार

वस्ल  की  रात  से  पहले मुहब्बत  कत्ल होती है ।
हिज्र आने  से पहले  ही  नसीहत क्यूँ मचलती है ।।
मेरी दीवानगी  पर  फिर चली  शमशीर है उसकी ।
बहुत दर्दे सितम लेकर ये किस्मत रोज जलती है ।।

वस्ल = मिलन
हिज्र= जुदाई के पल
शमशीर=तलवार

         nmt

तुम्हारी शरबती आँखों से फिर उसने गुजारिश की ।
छलक  जाओ जरा ,ये तश्नगी हद  से  मिलाती  है।।
छोड़  कर आ  रहे  हैं मयकदे  को  रिन्द  ये  सारे ।
नशा  उतरा नहीं जिनको  नज़र तेरी  पिलाती  है ।।


बेवफाई  का  सबक   दे  गयी  बोतल   तेरी ।।
 नशा  ये   वक्त  की  पाबंदियों  में  दूर  हुआ ।
मेरे  साकी  ने  पिला  दी  जो निगाहों से मुझे ।
उम्र  भर  होश  ना  आया  बड़ा  सरूर हुआ।।
                    NMT

बहुत  रोका  था   मैंने  बेअदब  से  हो  गयीं नज़रें ।
बगावत  कर  गयीं ज़ालिम  तेरे  दीदार की खातिर।।
जन्नते   हूर  से   बेहतर  अदा  ने   की  गिरफ्तारी।
सज़ा ए इश्क हो मुझको तेरा मुजरिम हुआ हाजिर।।

                       नवीन


मेरी  बेचैनियों  पर  कब  ,तरस  आएगी  ऐ हमदम ।
तुम्हारी इक झलक खातिर, है बेचीं जिंदगी अपनी ।।
छिपोगी कब तलक हमसे ,नजर आती नहीं क्यूँ तुम ।
दिल ने पहली मुहब्बत  को ,है भेजी बन्दगी अपनी ।।


ये रिश्ता तोड़ कर तुमको तसल्ली मिल गयी लेकिन ।
जला डाला है जिसका ख्वाब उसको मौत हासिल है।।
बड़ी  नाजो  नफासत  से  तेरी  पहलू   में आया  था ।
तेरी  ये  बेरुखी  सचमुच  बड़े  नफ़रत के काबिल है ।।
           -नवीन


जब तेरे  कूचे से होकर है चली पुरवा हवा ।
फिर तेरी खुशबू मुझे बेचैन कर जाने लगी।।
मैं सड़क से देखता हूँ जब मका तेरा सनम ।
वो  तेरी अगडाइयां  अब रैन तड़पाने लगीं ।।

सोचा  था  दोस्त  बनके  निभा देंगे  दोस्ती ।
पर  चाँद  सा  ये  हुस्न  इरादा  बदल गया ।।
आँखों  की  शरारत  भरी  मदहोशियाँ तेरी।
देखा जो लब पे जाम तो वादा बदल गया ।।

जब कैद खाने में मुसलसल उम्र ही गुजरी मेरी ।
तब  फिर  नयी आज़ादियाँ  अच्छी  नहीं  लगतीं ।

रुका है कब कहाँ किस से मुहब्बत का फ़साना ये ।
बंदिशों  पर  ये  लहरें  और  भी  बेख़ौफ़  होती हैं ।।


तुम्हारे जख्म तो भर जाएंगे इक दिन मेरे जानिब।
यहाँ  तो  मौत  हासिल है  तुम्हारी   बेरुखी  लेकर ।।
           

                   -

कैसे कह दूं

"----****कैसे कह दूं ?****---"

मैंने देखा है  आज तुझे
नज़रे चुराते
और फिर
बड़ी अदा के साथ
नजरें मिलाते ।
मेरे प्यार का असर
तुझे खीच लाया था तेरी दहलीज तक ।
वो सावन की हरियाली जैसे
कपडे ।
आँखों में गहरा आकर्षण ।
किसी बालकनी से चलते
हुए नयन के तीर ।
और फिर शर्मा कर
पलकें झुका लेना ।
अद्भुद सौंदर्य ।
मौन आमन्त्रण ।
प्रतीक्षा है तुम्हे मेरे पहल की
मैं जानता हूँ प्रिये ।
तुम्हारे एहसासों को पहचानता हूँ प्रिये ।
तुम्हारी खामोश चाहतें
मुझे रोज एक नई जिंदगी दे जातीं है ।
तुम्हारे हृदय से निकली तरंगे
अब पहुचने लगी है मेरे पास ।
किसी सम्मोहन की भांति
मेरे अवचेतन मन पर
तुम्हारा ही तो अधिकार है ।
फिर भी तुम भी मौन हो ।
और मैं भी मौन हूँ ।
नहीं खुल पाते मेरे शब्द ।
सिर्फ आत्मीय मिलन ही तो है
दोनों के देह पर कब्जा तो किसी और का है ।
कैसे कह दूं .........??????
मुझे .......तुमसे .....प्यार.... है ।

             नवीन

बुधवार, 19 अगस्त 2015

मनुहारों का गीत लिखूंगा

---***गीत***---

        
                      मनुहारों    का   गीत  लिखूंगा ।
                      मैं भी मन  का  मीत  लिखूंगा ।।

सौंदर्य   की   सहज  कल्पना ।
जीवन  की   अतृप्त   वासना ।
भावो   की   निर्द्वन्द  सर्जना ।
अंतर्मन   की   विरह   वेदना ।
निर्ममता   की   घोर  यंत्रणा ।
गयी  सिमट  सी मूल चेतना ।।

                     अंधकार   की  छाती   पर  मैं 
                     आशाओ का जीत  लिखूंगा ।।
                     मनुहारों   का  गीत  लिखूंगा ।
                     मैं भी  मन का  मीत  लिखूंगा ।।

घूँघट  पट   में  चाँद  सलोना।
महक उठा तन का हर कोना।
उर - स्पंदन   गुंजित   होना ।
भावुकता   का   रंग  पिरोना ।
धरती  प्यासी व्याकुल  होना ।
मेघों  का वह तपन  भिगोना ।

                      पायलिया की  छमछम मादक 
                      नूपुर   का  संगीत   लिखूंगा।।
                      मनुहारों   का  गीत  लिखूंगा ।
                      मैं भी मन  का  मीत लिखूंगा ।।

अंगड़ाई   में  मधुरिम  यौवन ।
तरुणाई सा  बहका  चितवन ।
इच्छाओं का  अद्भद  मधुवन।
प्रणय गन्ध विखराता उपवन।
अलक छटा लहराती बन ठन।
आलिंगन को व्यकुल तनमन ।

                सत रज तम में प्रीति  मिलाकर
                नव जीवन  का रीत  लिखूंगा ।।
                मनुहारों   का  गीत   लिखूंगा ।
               मैं भी मन  का  मीत  लिखूंगा ।।

जब   अलंकार   श्रृंगार   खिले।
तब आकर्षण  प्रतिकार  मिले ।
फिर  रात्रि  याचना  दीप  जले ।
आसक्ति   व्यथाओ  में  बदले । 
हिमखण्ड  हुए पिघले  पिघले ।
फिर ज्वार कहाँ उनसे सम्भले।

               प्रिय के  ऊष्ण  कपोलों  पर  मैं ,
               तृप्ति  मिलन का शीत लिखूंगा ।
               मनुहारों   का   गीत   लिखूंगा ।
               मैं  भी  अपना  मीत   लिखूंगा ।।

                              -नवीन मणि त्रिपाठी

गुरुवार, 13 अगस्त 2015

कुछ तो है

----***ग़ज़ल***--- 

फिर   तिरंगे  में  सुनामी,.... कुछ तो है ।
देश   में  पलता  हरामी,....  कुछ तो है ।।

तुम   हुए  आज़ाद   बस   कहते   रहो ।
तेरी फितरत में गुलामी,....कुछ  तो  है ।।

 फिर  धुआं  दिखने  लगा   संसद  में है।
उसकी आदत में निजामी,....कुछ तो है।।

 मज़हबी साया में देखो हुश्न बेपर्दा हुआ ।
हो गयीं वह भी  किमामी,.....कुछ  तो है ।।

जिसकी  सत्ता  थी  नहीं   उसको  कबूल।
 दे  रहा  है  वो  सलामी ,....कुछ  तो  है ।।

पुख्ता   सबूतो   पर  मिली  फाँसी  उसे ।
क्यों  हुई   ये   ऐहतरामी,....कुछ तो है ।।

बापू - माँ  का   शक्ल  दागी  हो  गया है।
मैली   चादर   रामनामी ,....कुछ   तो  है ।।

है  खबर   शायद   इलेक्शन  हांरने   की।
देखिये    बद  इंतजामी,.... कुछ  तो  है ।।

   -- नवीन मणि त्रिपाठी

क्या करूँ हुश्न तेरा गुनहगार है

----***ग़ज़ल***----

कुछ   तिलस्मी   लगा,  ये  तेरा  प्यार  है।
बेवफा      कैसा  तेरा,   ये   इकरार   है ।।

रोटियों   में  थी   खुशबू   तेरे  हाथ  की ।
चाहतो  की  भी  कैसी   ये  दरकार   है ।।

ख्वाब  में  रोज  आती  हो  जाने  वफ़ा।
ख्वाहिशों  की  तू  महंगी  सी बाजार है।।

लिख दिया तुमने खत में सबक है मगर ।
क्या   करूँ   हुश्न  तेरा   गुनहगार   है ।।

अब  वफाओं  के  ढूढो  न  मोती  यहां ।
ये  मुहब्बत  बनी   आज   व्यापार   है।।

उस  नदी से भी अब  वास्ता  क्या  रखूँ ।
जो  बहा ले  गयी  मुझको  मझधार  है।।

जिनके  मीठे  बचन   दिल   चुराते   रहे ।
अब  जुबाँ  पर वहां  खार  ही  खार  है ।।

उसकी  फितरत बदलती  रही  रात  दिन ।
दिल   लगाने  से   क्यूँ  वो  खबरदार  है।।

         -नवीन

मैं खत में और क्या लिखता

ग़ज़ल

मेरी  जागीर  ना तुम  हो  नहीं कुछ हक  मेरा चलता ।
हुई  थी आँख  मेरी नम मैं खत में और क्या लिखता ।। 

जुल्फ़ की  हर  अदाएं  भी बोल जाती है ये अक्सर  । 
पड़ेंगी    दौलते   ये   कम  मुझे  तू  बे  वफ़ा  लगता ।।

 मिल्कियत है उसे हासिल  कद्र से जो था न वाकिफ ।
जमी  बंजर    वही  बेदम  नहीं है  हल  जहाँ  चलता ।। 

मैं   बादल  हूँ   वही   जिसमें   बरसने  की  तमन्ना  है ।
नसीबों   में  नहीं   मौसम   यहाँ   सावन   बुरा  मिलता।।

मुकद्दर  में  मिलन   का  वक्त  जब  कर  दे मुकर्रर वो ।
है  बनती  ,शब् भी  है शबनम  नहीं  सूरज उगा करता ।।

ढल    रही    है   उम्र   तेरी   अब    ढलेंगे    मैकदे  भी।
सनम   तेरा  सितम  ता उम्र  तक  कैसे   यहाँ   चलता ।।

तुम्हारी  बज़्मे   महफ़िल   में  गजल  गाता  रहा   है  वो ।
तेरी  पायल  की  झनकारे  उसे  अब   सुर  नया  मिलता।।

      --नवीन मणि त्रिपाठी

ग़ज़ल

ग़ज़ल

यहां  मेरी  कलम  तुझ  पर  कभी तकरीर  न लिखती।
तेरी  तश्वीर   से   मिलती   हुई    तश्वीर  जो  मिलती ।।

नज़ीरे  हुस्न  हो  अव्वल  तेरी  नजरो  में  जलवा  है ।
करम  हो  जाए  गर  तेरा  कोई  तकदीर  है खिलती।।

मेरा सावन  है  तू आकर  बरस  जा अब  मेरे आँगन।
यहाँ  मुद्दत  से   तुझको  तश्नगी  की  पीर  न  दिखती ।।

खरीदारों  का  मज़मा  लग   रहा  तेरे  हरम  में  अब ।
सुना  तेरी   मुहब्बत  के  लिए   तहरीर  भी   बिकती  ।।

अमन   के  वास्ते   घूँघट  में  रहना   लाजिमी  तेरा ।
कयामत   हुश्न  बरपाता  यहॉं  शमसीर  है   चलती ।।

तुम्हारी  हर  तबस्सुम  पर  लिखे  लाखो  ने अफ़साने ।
फना  के  दरमियाँ  मुझको   तेरी  जंजीर  है  खिचती ।।

रोक  लो  इन  अदाओं को तेरी जुल्फें  भी  हैं  कातिल  ।
सनम  अब  मंदिरो  मस्जिद  की  है ताबीर  भी   ढहती  ।।

        -- नवीन मणि त्रिपाठी

ताबीर = पवित्रता    तश्नगी=प्यास
शमसीर = तलवार  तहरीर = एप्लीकेशन
तबस्सुम = मुस्कान 
दरमिया= दौरान
फना =कुर्बान

तेरी आँखे क्यूँ बताती ये मुहब्बत है खता

ग़ज़ल

धड़कने  मेरी हो तुम यह  सिर्फ तुमको है पता ।
तेरी  आँखे  क्यूँ  बताती  ये  मुहब्बत  है खता ।।

चाँद  से  चेहरे   पे   तेरे  इश्क  बेपर्दा  सनम ।
याद  तेरी  रात  भर मुझको बहुत जाती सता ।।

दस्तावेजो पर तेरी किस्मत  लिखा कोई और  है।
पर  मुहब्बत के लिए  है रब भी तुझको देखता।।

जुल्फ   लहराई   अदाएं  कातिलाना  सी  लगीं ।
जिंदगी हो या मेरी  कातिल  मुझे कुछ तो बता।।

तू   मुकद्दर   है  मेरी  जाने   वफ़ा  ये   जान  ले ।
चाहतें   कितनी   जवां  हैं   वक्त  देगा  ये  जता ।।

तेरी  खुशबू  रूबरू  होती  है अक्सर  ख्वाब में।
तुम  रात  की  रानी लगी महकी  हुई तेरी लता ।।

जुल्फ घुंघराली जो  बादल की तरह छाती गयी ।
जब नींद से आँखे खुली तुम दे गई मुझको धता ।।

                         --नवीन मणि त्रिपाठी

गज़ज़

अब  सियासत  दां  का  ऐसा   पैंतरा  है ।
उसको  दहशत  गर्द कहना  ही  बुरा  है ।।

कातिल  ए   फांसी   पे    मुर्दाबाद    हो ।
वोट  के  मजहब  से  आया  मशबरा  है ।।

बेकसूरों   के    दफ़न   पर    चुप   रहो ।
कुर्सियों   का   ये   पुराना  तफसरा  है ।।

कत्ल  कर आता  मजा  कासिम  को  है।
वह जुबां पर आज भी बिलकुल खरा है ।।

तू    वकालत   दुश्मनो  की   खूब  कर ।
जख्म   तेरे  मुल्क  का  अब भी हरा है।।

स्वर   तेरे  तकसीम  के  खारिज  हुए  हैं।
फिर   वतन  कहने   लगा  तू   बेसुरा  है ।।

है  खबर सबको यहां  फितरत  की अब।
वह ज़हर  से क्यों  बहुत ज़्यादा भरा है ।।

           - नवीन मणि त्रिपाठी

ग़ज़ल

जवानी वक्त था  जालिम  तरस  जाते  थे  दीवाने ।
चाँद कह कर जले है रात दिन तुझ पे वो परवाने ।।


उम्र   पूरी  गुजारी  सिर्फ   तेरी   चाहतें  लिखकर ।
जेहन  में आज भी जिन्दा मिले जितने मुझे ताने ।।


शबाबो  की अदा  फिर जुल्फ लहराना बनी चर्चा ।
बेवफा  से  मेरी  नज़रें  लगी  थी  इश्क  फरमाने ।।


तौहीने  मुहब्बत का  खुदा ने  हक  दिया  तुझको ।
कातिलाना तस्सवुर में  लिखी तुम रोज अफ़साने ।।


हमारे  खत  को  न  पढ़ना फाड़कर  यूं जला देना।
जख्म भूला कहाँ मुझको लगी जब जुल्म को ढाने ।।


वक्त फिसला तेरी मुट्ठी से फिसली आशनाई सब ।
नहीं आते है अब  बादल तेरे आँगन  को बरसाने ।।


सनम  जब हुश्न ढल जाने  की  बारी आ गयी तेरी ।
फेर  कर  मुँह  गए  सारे  जो  तेरे  बिन  थे  बेगाने ।।


         - नवीन मणि त्रिपाठी

दोहे

टूट  गयीं  सड़के  सभी  टूट  गया  विश्वास ।
बिजली  दुर्लभ  हो  गयी  टूटी सारी आस ।।

यह समाज का वाद है या फिर है अपवाद ।
नेता -जनता मध्य से लुप्त  हुआ  सम्वाद ।।

पिछडो  की माला जपे लेते  पिछड़ा वोट ।
एक  जाति यादव भली  बाकी में है खोट ।।

न्यायालय आदेश का पालन  करे न कोय ।
मापदण्ड  बस  एक है पद पर यादव होय।।

रक्षक  ही भक्षक  बने  लुटता  यहां प्रदेश ।
घूसखोर  नेता  मिले बदल बदल के भेष ।।

महिलाओं पर  क्रूरतम इनका सदा विचार ।
फ़ूला  फलता  राज  में इनके है व्यभिचार ।।

अवसरवादी  हो  गयी  उनकी अब पहचान।
रोज टूटकर गिर रहा मुस्लिम का अभिमान।।

गुंडों  की  भरमार   है  चौराहों   पर  आज ।
इज्जत  राखें  राम जी  उनका आया राज ।।

                   -नवीन

रविवार, 26 जुलाई 2015

पापा के नाम

पापा अब  मेरे आँसू  की तुम
और    परीक्षा    मत    लेना ।
सैलाब    उमड़ते   आँखों  में
अब  धैर्य की शिक्षा मत देना।


मैं  टूट रहा  हूँ  अब  प्रतिपल।
खो  रहा अनवरत हूँ सम्बल ।
मैं  शक्तिहीन दुःख में विलीन।
आभासित  जैसे   कर्म  हीन ।
ईश्वर  भी  हुआ  पराया  सा ।
मन  व्याकुल  है  बौराया सा ।



मैं  भीख   मांगता  प्राणों की
वह चाह  रहा  सब हर लेना ।।
पापा अब  मेरे आंसू की तुम
और   परीक्षा    मत    लेना ।।



आडम्बर   सा  ईश्वर  लगता ।
निष्तेज  हुई  जाती   क्षमता ।
जप  पूजन  सारे  व्यर्थ  लगे ।
संभावित   यहां  अनर्थ  लगे ।
सिसकियाँ रोक कर जीता हूँ।
आँसू  को  छुपकर  पीता हूँ ।



ईश्वर  ही   न्याय  विधाता  है
फिर  ऐसी  दीक्षा  मत  देना ।
पापा अब मेरे  आंसू की तुम
और   परिक्षा    मत   लेना ।।



है रोम  रोम ऋण भार  लिए ।
तुमसे  ही  जीवन सार  लिए ।
तुम  भाग्य  विधाता  हो  मेरे ।
इस  जन्म  के  दाता  हो  मेरे।
मैं शून्य विकल्पों के  संग  में ।
निश्चेतन   सा  प्रस्तर  रंग  में ।



नौका   आशा   की   डूब  रही
अब मुश्किल  बहुत इसे  खेना ।
पापा  अब  मेरे आंसू की  तुम
और     परीक्ष    मत    लेना।।



सब  दृश्य  पटल  पर घूम रहा ।
बचपन  का  दर्पण लौट  रहा ।
संघर्षो  की  वह  अमर  कथा।
देखी    मैंने    सम्पूर्ण    व्यथा।
वह आत्म शक्ति वह  संस्कार ।
है   मिला  मुझे  अद्भुद  दुलार ।



मैं बिछड़ सकूँ  न अब  तुमसे।
आशीष  मुझे  शत  शत देना ।
पापा अब  मेरे आंसू  की तुम
और   परीक्षा    मत    लेना ।।



दुर्भाग्य चरम पर बोल रहा ।
अंतस का साहस डोल रहा ।
इस अवनी में मैं बिखर रहा ।
असहाय बना मैं सिहर रहा ।
निः शब्द हुआ मैं सुलग रहा ।
हूँ मौन अंक से  विलख रहा ।



यह  तीक्ष्ण  वेदना   है  निर्मम
अभिशप्त  समीक्षा  मत  देना ।
पापा अब  मेरे आंसू  की  तुम
और    परीक्षा    मत     लेना ।।

         
                    नवीन