तीखी कलम से

मेरे बारे में

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जी हाँ मैं आयुध निर्माणी कानपुर रक्षा मंत्रालय में तकनीकी सेवार्थ कार्यरत हूँ| मूल रूप से मैं ग्राम पैकोलिया थाना, जनपद बस्ती उत्तर प्रदेश का निवासी हूँ| मेरी पूजनीया माता जी श्रीमती शारदा त्रिपाठी और पूजनीय पिता जी श्री वेद मणि त्रिपाठी सरकारी प्रतिष्ठान में कार्यरत हैं| उनका पूर्ण स्नेह व आशीर्वाद मुझे प्राप्त है|मेरे परिवार में साहित्य सृजन का कार्य पीढ़ियों से होता आ रहा है| बाबा जी स्वर्गीय श्री रामदास त्रिपाठी छंद, दोहा, कवित्त के श्रेष्ठ रचनाकार रहे हैं| ९० वर्ष की अवस्था में भी उन्होंने कई परिष्कृत रचनाएँ समाज को प्रदान की हैं| चाचा जी श्री योगेन्द्र मणि त्रिपाठी एक ख्यातिप्राप्त रचनाकार हैं| उनके छंद गीत मुक्तक व लेख में भावनाओं की अद्भुद अंतरंगता का बोध होता है| पिता जी भी एक शिक्षक होने के साथ साथ चर्चित रचनाकार हैं| माता जी को भी एक कवित्री के रूप में देखता आ रहा हूँ| पूरा परिवार हिन्दी साहित्य से जुड़ा हुआ है|इसी परिवार का एक छोटा सा पौधा हूँ| व्यंग, मुक्तक, छंद, गीत-ग़ज़ल व कहानियां लिखता हूँ| कुछ पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होता रहता हूँ| कवि सम्मेलन के अतिरिक्त काव्य व सहित्यिक मंचों पर अपने जीवन के खट्टे-मीठे अनुभवों को आप तक पहँचाने का प्रयास करता रहा हूँ| आपके स्नेह, प्यार का प्रबल आकांक्षी हूँ| विश्वास है आपका प्यार मुझे अवश्य मिलेगा| -नवीन

मंगलवार, 28 मार्च 2017

अइसे सीना उतान थोरै है

एक अवधी ग़ज़ल लिखने का प्रयास                 2122 1212 22

कोई   पक्का   मकान  थोरै   है ।
दिन दशा  कुछ ठिकान थोरै  है ।।

सिर्फ  कुर्सी  मा जान  है अटकी ।
ऊ  दलित  का   मुहान  थोरै  है ।।

ई वी ऍम में  कहाँ   घुसे   हाथी।
छोटा  मोटा   निशान  थोरै   है।।

रोज  घुड़की  है देत ऐटम  का ।
तुमसे   जनता   डेरान  थोरै  है ।।

लै लिहिस कर्ज पर नया टक्टर।
कौनो  गन्ना   बिकान  थोरै   है ।।

वोट खातिर पड़ा हैं चक्कर मा ।
हमरे  खातिर  हितान  थोरै   हैं ।।

रोज  दाउद  पकड़ि रहे तुम तो।
कौनो  घर  मा लुकान  थोरै  है।।

नोट  बन्दी  पे  है  बड़ा   हल्ला ।
एको    रुपया   हेरान  थोरै   है।।

है  कसाई   पे  अब  नज़र   टेढ़ी।
राह  तनिको   भुलान  थोरै   है ।।

अब  तो  सारा  हिसाब  हो  जाई ।
तुम से  अफसर  दबान  थोरै   है ।।

है  बड़े  काम  का  छोटका योगी।
अइसे   सीना   उतान   थोरै   है ।।

             --नवीन मणि त्रिपाठी

चाँद बहुत शर्मीला होगा

चाँद    बहुत   शर्मीला   होगा ।             
थोड़ा     रंग    रगीला    होगा ।।

 यादों   में  क्यों   नींद  उडी है।         
 कोई   छैल   छबीला   होगा ।।

रेतों   पर   जो शब्द  लिखे  थे ।
डूब   गया   वह   टीला  होगा ।।

ख़ास अदा  पर  मिटने  वालों ।
पथ   आगे    पथरीला   होगा ।।

 जिसने  हुस्न  बचाकर  रक्खा ।                                  हाथ   उसी  का   पीला  होगा ।।

ज़ख़्मी  जाने  कितने  दिल हैं ।
ख़ंजर  बहुत  नुकीला  होगा ।।

मत  उसको  मासूम्  समझना ।
दिलवर  बहुत  हठीला  होगा ।।

 बिछड़ेंगे   जीवन    के   साथी।      
गठबंधन   गर    ढीला   होगा ।।

होश बचाकर  नज़र  मिलाना ।
चेहरा   बड़ा   नशीला   होगा ।।

 ऐ  प्यासे  मत  प्यास  बुझाना ।
यह  पनघट   जहरीला   होगा ।।

22 22 22 22 

           -- नवीन  मणि त्रिपाठी

ग़ज़ल - रिश्ता शायद दिल का होगा

22 22 22 22 
मुद्दत   से   वह   ठहरा   होगा ।
रिश्ता शायद  दिल का  होगा ।।

सच  कहना   था  गैर  ज़रूरी ।
छुप छुप कर  वह रोता  होगा ।।

ढूढ़  रहा   है  तुझको आशिक।
नाम   गली   में   पूछा  होगा ।।

इल्म कहाँ  था  इतना उसको ।
अपना   गाँव   पराया   होगा ।।

चेहरा    देगा   साफ़   गवाही।
जैसा   वक्त  बिताया   होगा ।।

दाग  मिलेगा  गौर  से   देखो ।
परदा   अगर  उठाया  होगा ।।

मैंने   उसको  याद   किया  है ।
खत उसका भी आता होगा ।।

यूँ  ही  कब   निकले  हैं आँसू ।
दर्द   उसे   भी   होता   होगा ।।

आँखें नम  दिखतीं  हैं  सबकी ।
गीत  हृदय   से   गाया  होगा ।।

 तेज  हवा  के  इन  झोकों  में ।          
इश्क   परिंदा    उड़ता   होगा ।।

 टूट    रहा   हूँ    रफ्ता  रफ्ता ।            
 वह भी अब  तक  रूठा होगा ।।

मिटने      वाली      बेचैनी    है।
चाँद  निकलकर  आता  होगा ।।

ग़ज़ल - चाँद के आने से कुछ रातें सुहानी हो गईं

2122 2122 2122 212

चाँद  के  आने  से  कुछ   रातें   सुहानी  हो  गईं ।
महफ़िलें   गुलज़ार   होकर  जाफ़रानी   हो  गईं ।।

काट  लेते  हैं  यहाँ  सर चन्द  सिक्कों  के लिए ।
रहमतें  बीते  दिनों  की  अब  कहानी  हो गईं।।

हसरतों का  क्या भरोसा बह  गईं  सब  हसरतें ।
वो छलकती आँख में दरिया  का पानी  हो गईं ।।

हुस्न के इजहार का बेहतर सलीका  था जिन्हें  ।
देखते   ही   देखते    वो    राजरानी   हो   गईं।।

खत में क्या लिक्खूँ यही बस सोचता ही रह गया।
जिन को लिखना था वो सब बातें ज़बानी हो गईं ।।  

मिल गया तरज़ीह शायद फिर  तुम्हारे  हाल  पर ।
अब  तेरी  पैनी  अदाएं  भी   गुमानी  हो   गईं ।।

कुछ  तवायफ़  के  घरों  में हो  रही  चर्चा  गरम ।
है बड़ा  मसला के अब  वो  खानदानी  हो  गईं।।

मानता  हूँ मुफ़लिसी  में  था  नहीं  रूमाल   तक ।
बस झुकी  नज़रों  की  वो  यादें निशानी  हो   गईं ।।

दफ़्न  कर  दो ख्वाहिशें  ये दौलतों  का  दौर  है ।
इश्क़   बिकता  ही  नहीं   बातें  पुरानी  हो   गईं।।

आजमाइस  में  वो  आती  हैं  यहां  चारा  तलक ।
मछलियो  को  देखिये कितनी  सयानी  हो  गईं ।।

             --- नवीन मणि त्रिपाठी

ग़ज़ल - फिर ज़ख्म नया दोगे

221 1222   221  1222

इक जख़्म पुराना है फिर जख़्म नया  दोगे ।
मासूम   मुहब्बत   है  कुछ दाग  लगा  दोगे ।।

कमजर्फ जमाने में जीना है  बहुत मुश्किल ।
है खूब  पता  मुझको  दो पल में भुला दोगे ।।

एहसान  करोगे  क्या  बेदर्द  तेरी   फ़ितरत ।
बदले  में किसी भी  दिन पर्दे को उठा दोगे ।।

कैसे  वो यकीं कर ले  तुम लौट के आओगे ।
इक आग बुझाने  में  इक आग  लगा  दोगे ।।

आदत  है  पुरानी  ये  गैरों  पे  करम करना ।
अपनों की तमन्ना पर  अफ़सोस जता दोगे ।।

मजमून वफाओं का लिक्खा है बहुत खत में ।
बेख़ौफ़  हवाओं  में यह  ख़त भी उड़ा  दोगे ।।

तुमने ही  निभाया  कब  किरदार  भरोसे  का ।
अश्कों  की इमारत को लहजों  में  छुपा दोगे ।।

चर्चा  है  सितारों   में  है  चाँद  नया  क़ातिल ।
गर  जुर्म  हुआ  साबित  फरमान  सुना  दोगे ।।

     --- नवीन  मणि त्रिपाठी

गज़ल -चैन आया है हर दफ़ा तुझसे

2122 1212 22
कैसे  कह  दूँ  मैं  हूँ  ज़ुदा  तुझसे ।
चैन  आया   है   हर  दफ़ा  तुझसे ।।

इक  सुलगती   हुई   सी  खामोशी ।
इक फ़साना  लिखा मिला  तुझसे ।।

वो   इशारा   था  आँख   का  तेरे ।
दिल था पागल छला गया तुझसे ।।

भूल   जाती   मेरा  तसव्वुर   भी ।
क्यूँ  हुई  रात  भर  दुआ  तुझसे ।।

बेखुदी  में  जो  इश्क  कर  बैठा ।
उम्र भर  बस  वही जला  तुझसे ।।

कर  लूँ  कैसे  यकीन  वादों   पर ।
कोई   वादा  कहाँ  निभा  तुझसे ।।

कुछ  रक़ीबों  से   गुफ्तगूं   करके ।
तीर   वाज़िब  नहीं  चला  तुझसे ।।

रूठ  जाने  की   है  अदा  ज़ालिम ।
और  हासिल  ही क्या हुआ तुझसे ।।

कत्ल करने का  सिलसिला  जारी ।
आशिको  ने सितम  कहा  तुझसे ।।

खूब   इल्जाम   लग  रहा   लेकिन ।
चाँद   पूछा   हरिक   रज़ा  तुझसे ।।

उस से छुपना भी  गैर  मुमकिन है ।
ख्वाब  में  रोज  मिल  रहा  तुझसे ।।

       -- नवीन मणि त्रिपाठी

ग़ज़ल -

वज़्न - 2122 1122 1122 22/112

अब्रे  जहराब   से  बरसा   है  ये   कैसा   पानी ।
भर  गया  मुल्क  की आँखों  में हया का  पानी ।।

मिट  ही जाए न कहीं शाख जे एन यू की अब ।
आइये   साफ़  करें  मिल  के  ये  गन्दा   पानी।।

मन्नतें  उन की  हैं  हो  जाएं  वतन   के  टुकड़े ।
सर  के  ऊपर  से  निकल जाए न खारा   पानी ।।

कुछ हैं जयचन्द सुख़नवर जो खुशामद में लगे ।
बेच   बैठे   हैं  जो  इमानो   कलम   का  पानी ।।

आलिमों  का  है  ये  तालीम  ख़ता   कौन  कहे ।
ख़ास  साजिश  के  तहत हद  से  गुजारा पानी ।।

जल  गए  अम्नो  सुकूँ  ख़ाक  चमन  कर  बैठे ।
देखिये   शह्र   में  अब   आग   लगाता   पानी ।।

हो  रहे  पाक  परस्ती   में  वो   मशहूर   बहुत ।
ले  रहे  मौज  से    जो  देश  में  दाना    पानी ।।

तालिबानों  का हक़ीक़त से  भला क्या  रिश्ता ।
भेजते   अक्ल   सरेआम   वो   काला   पानी ।।

हर  तरफ  धुंध है  छाया  है  घना  सा  कुहरा ।
खौफ   ख़ातिर  है  यहां  देर  से ठहरा  पानी ।।

बुनते  साजिश  हैं  ये गद्दार  बगावत के  लिए ।
तल्ख़  अरमान   पे  लोगों  ने  बिखेरा  पानी ।।

         --नवीन मणि त्रिपाठी

ग़ज़ल - मत रहो धोखे में वो नादान है

2122  2122  212 
बेसबब  लिखता   कहाँ   उन्वान  है ।
वो नई फ़ितरत से  कब अनजान है ।।

कुछ  मुहब्बत  का  उसे  है  तज्रिबा।
मत  रहो  धोखे  में  वो  नादान  है ।।

सिर्फ माँगी थी  अदा की इक नज़र।
कह गई वह  जान  तक कुर्बान  है ।।

दायरों  से  दूर  जाना  मत    कभी ।
ताक  में  बैठा  कोई   अरमान   है ।।

है भरोसा  ही  नहीं  खुद  पर  जिसे ।
ढूढ़ता   फिरता   वही    परवान   है ।।

कहकशां  में  ढूँढिये  अब  चाँद  को।
आसमा  कब  से  पड़ा   वीरान   है ।।

इश्क़   की   गलती   करेगा  आदमी ।
मत कहो  कुछ  भी उसे  इंसान  है ।।

क्यों   लड़ाई  बाद  मरने  के  यहां ।
चार  दिन  का  आदमी मेहमान है ।।

छूट  जाते   हैं    दरो   दीवार  जब।
उसकी ख़्वाहिश से खुदा हैरान है ।।

हुस्न  ढल  जाएगा  तेरा भी  सनम ।
फख्र  मिट्टी  पे  न  कर  बेजान  है ।।

दूर    रहिये   नाज़नीनो   से   बहुत ।
ढूढ़ता    रहता   इन्हें    शैतान    है ।।

           --- नवीन मणि त्रिपाठी

ग़ज़ल- वो मुकद्दर इस तरह से आजमाना चाहता है ।।

2122  2122  2122  2122
हाथ  पर  बस  हाथ रखकर  याद आना चाहता है ।
वो मुकद्दर   इस  तरह  से  आजमाना  चाहता  है ।।

बेसबब  यूं ही  नही  वह  पूछता  घर का पता अब  ।
रस्म  है  ख़त  भेजना  शायद   निभाना  चाहता है ।।

स्याह रातों का है  मंजर  चाँदनी  मुमकिन  न होगी ।
रोशनी  के  वास्ते   वह   घर   जलाना   चाहता  है ।।

गुफ्तगूं होने लगी है  फिर  किसी  का  क़त्ल  होगा ।
है कोई   मासूम  आशिक़  सर  उठाना  चाहता  है ।।

शह्र में दहशत का आलम है रकीबों  का असर भी ।
तब भी वह अहले ज़िगर से इक फ़साना चाहता है ।।

चार सू  खुशबू  हवा  में सुर्ख है चेहरा  किसी  का ।
चन्द लम्हों  के  लिए  वह दिल  लुटाना  चाहता है ।।

नफरतों  के इन सियासी  अब्र  से है  तीरगी  यह  ।
अब कोई सूरज अमन   का डूब  जाना चाहता है ।।

मत वफ़ा का जिक्र कर उससे वफ़ा होगी भला कब ।
वो गुहर ख़ातिर सदफ़ पर जुल्म ढाना  चाहता है ।।

गो के अब अच्छा मुसाफ़िर कह रहे हैं लोग उसको ।
दाग रहजन का  वो  दामन  से  मिटाना  चाहता  है ।।

बैठ जाते  हैं  परिंदे   जब   मुहब्बत  के  शज़र  पर ।
है  कोई  जालिम ,कबूतर  पर   निशाना  चाहता है ।।

दर्द के इज़हार से हासिल हुआ यह  फ़लसफ़ा  भी ।
यह  ज़माना  हाल  पर  बस  मुस्कुराना  चाहता है ।।

                 -- नवीन मणि त्रिपाठी

काम तुम्हारा बोल रहा है

---****काम तुम्हारा बोल रहा है***----
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यमुना   वे   पर   माँ   बेटी  के 
साथ    तमाशा     भइया  जी ।
और   बदायूं    की   बेटी   पर 
न्याय  हुआ  कब भइया  जी ।
बलात्कार  फिर आम  हो गया 
प्रांत    तुम्हारे     भइया   जी ।
लूट     गए      सारी   इज्जत 
सभ्रांत   तुम्हारे   भइया   जी ।

सिंघासन   अब   तेज  हवा  से 
देखो   कैसे    डोल   रहा   है ।
काम   तुम्हारा  बोल  रहा  है ।
काम   तुम्हारा  बोल  रहा  है ।।

काशी    के  भक्तो   पर   क्यों 
लाठी   चलवाए    भइया  जी ।
कैराना    के      गुंडों        पर 
क्यों  नेह   लुटाए  भइया  जी ।
नगर    मुजफ्फर   के  दंगो  में 
रंग   जमाये     भइया       जी ।
बुला   सैफई    खूब    अफ्सरा 
नाच    नचाये    भइया     जी ।
शर्म  हया  को  दर  किनार कर 
पिटता   अक्सर  टोल  रहा   है।
काम  तुम्हारा   बोल  रहा     है ।
काम   तुम्हारा  बोल   रहा  है ।।

आतंकी   के   खैर   ख्वाह    हैं 
अंग     तुम्हारे    भइया      जी 
मंत्री   जी   पर   खूब   चढ़ा है 
रंग   पाक   का    भइया    जी 
भैंस   ढ़ूढ़ते   जब   फिरते    हैं 
वीर     तुम्हारे    भइया      जी 
राग   द्वेष   है गधों से क्यों जब  
गधे     पालते     भइया    जी ।

जन  मानस  का  रक्त   देखिये 
इस  सत्ता  से  खौल  रहा   है ।
काम  तुम्हारा  बोल  रहा   है ।
काम  तुम्हारा  बोल   रहा  है ।।

जय   गुरुदेव  सन्त पर कब्जा 
खूब   कराये    भइया     जी ।
नर   संहार   करा   मथुरा    में 
रास   रचाये     भइया     जी ।
दुर्गा    नागपाल    को   अच्छा 
सबक   सिखाये    भइया   जी 
घोर   माफिया  का  सारा  भय 
मुक्त    कराये      भइया   जी ।

अफसर   बन  बैठा  है    डाकू 
लूट   बजाकर   ढोल  रहा  है ।।
काम  तुम्हारा   बोल  रहा    है ।
काम  तुम्हारा   बोल   रहा  है ।।

यादव   जी    को   ढूढ़     ढूढ़ 
भरती  करवाते   भइया    जी ।
बाकी ओबीसी  को  लॉलीपॉप
चुसाते        भइया।        जी ।
मोदी  से   तुम  मुसलमान  को 
खूब    डराते     भइया    जी ।
ब्लैकमेल   से   राजनीति   की 
नाव   चलाते   भइया     जी ।।

साम्प्रदायिक  बहुत   बड़े    हो 
वक्त  पोल  को  खोल  रहा है ।
काम  तुम्हारा   बोल  रहा   है ।
काम  तुम्हारा  बोल  रहा   है ।।

मैनपुरी      कन्नौज       इटावा 
आजमगढ़   के  भइया     जी ।
बाकी   सब  अनाथ   रोते   हैं 
बैठ   वसारे    भइया       जी ।
बिजली  सड़के  रोज  रुलाती 
बात     बनाते    भइया    जी ।
फिर   विकास  का  झूठा नारा 
पाठ    पढ़ाते    भइया    जी ।

यह    समाजवाद    है    कैसा 
जहर  वतन  में  घोल  रहा  है।
काम   तुम्हारा बोल   रहा  है ।
काम    तुम्हारा   बोल   रहा ।।

भ्रष्ट     मंत्री    दागी      चेहरे 
खूब   पालते    भइया   जी ।
बलात्कार     आरोपी     मंत्री 
रपट   न  लिखते  भइया जी ।
यादव     चेयर    मैन      बना 
दूकान   लगाते    भैया    जी ।
बड़ी   धांधली  हो  जाती   है 
कोर्ट   बताते    भइया     जी ।

छोटी  हो   या  बड़ी    नौकरी 
सबका  अपना   मोल  रहा है ।
काम  तुम्हारा   बोल  रहा  है ।
काम   तुम्हारा  बोल  रहा  है ।।

भ्रष्ट  पार्टी   से  गठबंधन   भी 
करवाते    भइया           जी ।
चोर     चोर  मौसेरे  भाई   से 
मिलवाते      भइया      जी ।।
लोकतन्त्र     का   कूकर    से 
सौदा    करवाते   भैया    जी ।
रोजगार  पर  चुप होकर फिर 
ध्यान   बटाते   भइया   जी ।।

लिए   तराजू    मतदाता   अब 
तुमको  ढंग  से  तोल  रहा  है।।
काम   तुम्हारा   बोल  रहा  है ।
काम   तुम्हारा   बोल  रहा  है ।।

ग़ज़ल - जब जब किया है याद दर्द फिर उभर गया

*221  2121  2121  212*

‌मेरी  गली   के  पास  से वो  यूँ  गुजर  गया ।
ऐसा  लगा  जमीं  पे  आसमा  उतर   गया ।।

माना   मुहब्बतों  के  फ़लसफे  अजीब  है ।
शायद नज़र खराब थी  वो भी  उधर गया ।।

मैं   रात  भर   सवाल   पूछता   रहा   मगर ।
उसका  जबाब  हौसलों के पर  क़तर  गया ।।

‌तुमने दिए जो जख़्म आज तक न भर सके ।
‌जब जब किया है  याद  दर्द  फिर उभर गया ।

इस   तर्ह  उस  हसीन  की  तू पैरवी  न  कर ।
मतलब निकलने पर जो रब्त  से मुकर गया ।।

‌तू   मेरी  आजमाइशों  की   कोशिशें   न  कर ।
जो  आया  तोड़ने  वो  हो के दर  बदर  गया ।।

‌मत  राज  जिंदगी  का  पूछिए   हुजूर  अब ।
कातिल  भी  मेरी  मुस्कुराहटों  पे मर  गया ।।
‌               
‌जब  भी गए हैं आईने  के पास  वो  सनम ।
‌किस्मत  बुलंद  पा के आइना  निखर  गया ।।


‌               --नवीन मणि त्रिपाठी

ग़ज़ल - वैलेंटाइन स्पेशल।

मित्रो यह  ग़ज़ल अवधी और भोजपुरी मिश्रित है । 

*******।।वैलेंटाइन स्पेशल।।********

*2122   1212   22*

प्रेम   मा   टकटकी    लगाये   हम ।
कौनो  दुलहिन न  ढूढि  पाये  हम ।।

 चल दिहिस फिर बयार फागुन कै ।
 शेष  बाबा  से  डाट  खाये   हम ।।

खूब    रंगीन   आज   मौसम   बा ।
तुम का खातिर  गुलाब  लाये हम ।।

चाल  तोहरो  बा  मोरनी  जइसन ।
वीडियो  मा  उतारि   लाये   हम ।।

कइलू करिया तु आज जब जुल्फी ।
राति  भर  देखि  कै  बिताये  हम ।।

ई   बुढ़ापा    मा  हो   गइल  दंगा ।
इश्क़बाजी  मा  चोट  खाये  हम ।।

अब  चिरौरी  करब  न हम तुमसे ।
भेद उमरिन  का सब मिटाये हम ।।

कुछ तरस खा के मानि जा ससुरी ।
महँगी   नथुनी  उधार   लाये  हम ।।

है  बुजुर्गी   मा   इश्क   खरचीला ।
हैं   शिलाजीत  कुछ  मंगाए  हम ।।

मुसकी मारो न खीसि अब  काढ़ो ।
खेत गिरवी मा  धय के आये हम ।।

व्याह अब हुई है प्रेम  दिवसन  पर ।
घर से किरिया  हई  तो  खाये हम ।।

        - नवीन मणि त्रिपाठी

ग़ज़ल - ये जिंदगी है अभी तक नहीं दुआ पहुंची

1212 1122 1212 22 
ये  जिंदगी  है अभी  तक नहीं दुआ पहुँची ।
खुदा के पास तलक भी न इल्तजा पहुँची।।

गमो का  बोझ उठाती  चली  गई  हँसकर ।
तेरे दयार   में   कैसी  बुरी   हवा   पहुँची ।।

अजीब  दौर  है  रोटी   की  दास्ताँ  लेकर ।
यतीम  घर से  कोई  माँ कई  दफ़ा पहुची ।।

तरक्कियों की  इबारत  है सिर्फ पन्नों  तक ।
है गांव अब भी वही गाँव कब शमा पहुँची ।।

यहां   है   जुल्म  गरीबी   में  टूटना    यारो ।
मुसीबतों   में  जफ़ा भी  कई  गुना  पहुँची।।

है फरेबों  का  चमन मत  गुहार  कर  बन्दे ।
के रिश्वतों के  बिना  कब कोई सदा पहुँची ।।

वो बिक गई थी सरेआम  रात महफ़िल में ।
सुना है घर पे कई  बार दिल  रुबा पहुँची ।।

 ये भूंख  रोज  जलाती है  ख्वाहिशें  देखो ।
जम्हूरियत है  ये  साहब  नहीं  हया पहुंची ।।

बड़ा  बेदर्द जमाना  है  उस को क्या देगा ।
हुई   तमाम  वफायें   मगर  ख़ता  पहुँची ।।

ठगा गया  है ये इंसान फिर  सियासत  से ।
नई  हयात  के  बदले  नई  क़ज़ा  पहुंची ।।

                --नवीन मणि त्रिपाठी 
दयार -क्षेत्र 
इल्तिजा- प्रार्थना निवेदन 
जम्हूरियत -लोकतन्त्र 
जफ़ा -घृणा 
हयात- जिंदगी 
कज़ा- मौत