तीखी कलम से

मेरे बारे में

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जी हाँ मैं आयुध निर्माणी कानपुर रक्षा मंत्रालय में तकनीकी सेवार्थ कार्यरत हूँ| मूल रूप से मैं ग्राम पैकोलिया थाना, जनपद बस्ती उत्तर प्रदेश का निवासी हूँ| मेरी पूजनीया माता जी श्रीमती शारदा त्रिपाठी और पूजनीय पिता जी श्री वेद मणि त्रिपाठी सरकारी प्रतिष्ठान में कार्यरत हैं| उनका पूर्ण स्नेह व आशीर्वाद मुझे प्राप्त है|मेरे परिवार में साहित्य सृजन का कार्य पीढ़ियों से होता आ रहा है| बाबा जी स्वर्गीय श्री रामदास त्रिपाठी छंद, दोहा, कवित्त के श्रेष्ठ रचनाकार रहे हैं| ९० वर्ष की अवस्था में भी उन्होंने कई परिष्कृत रचनाएँ समाज को प्रदान की हैं| चाचा जी श्री योगेन्द्र मणि त्रिपाठी एक ख्यातिप्राप्त रचनाकार हैं| उनके छंद गीत मुक्तक व लेख में भावनाओं की अद्भुद अंतरंगता का बोध होता है| पिता जी भी एक शिक्षक होने के साथ साथ चर्चित रचनाकार हैं| माता जी को भी एक कवित्री के रूप में देखता आ रहा हूँ| पूरा परिवार हिन्दी साहित्य से जुड़ा हुआ है|इसी परिवार का एक छोटा सा पौधा हूँ| व्यंग, मुक्तक, छंद, गीत-ग़ज़ल व कहानियां लिखता हूँ| कुछ पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होता रहता हूँ| कवि सम्मेलन के अतिरिक्त काव्य व सहित्यिक मंचों पर अपने जीवन के खट्टे-मीठे अनुभवों को आप तक पहँचाने का प्रयास करता रहा हूँ| आपके स्नेह, प्यार का प्रबल आकांक्षी हूँ| विश्वास है आपका प्यार मुझे अवश्य मिलेगा| -नवीन

सोमवार, 26 जून 2017

ग़ज़ल --तेरी महफ़िल में दीवाने रहेंगे

1222 1222 122

शमा    के   पास    परवाने   रहेंगे ।
तेरी  महफ़िल  में   दीवाने   रहेंगे ।।

तुम्हारी शोखियाँ कातिल हुई हैं ।
तुम्हारे    खूब   अफ़साने   रहेंगे ।।

बना देंगे नया इक ताज़ हम भी ।
हमें  जब  हाथ  कटवाने  रहेंगे ।।

तुम्हारी   बज्म  में  आता  रहूँगा ।
खुले जब  तक  ये  मैखाने  रहेंगे ।।

जिसे है फिक्र दौलत की नहीं अब ।
उसी    के   साथ  याराने  रहेंगे ।।


तुम्हारी शोखियाँ कातिल हुई हैं ।
तुम्हारे  खूब  अफ़साने रहेंगे ।।

बड़ा  इल्जाम  फिर लगने लगा है ।
हजारों    जख्म   पहचाने   रहेंगे ।।

 हवाओं में गजब खुशबू है उसकी ।
कहाँ  तक  लोग  अनजाने  रहेंगे ।।

चुरा लेते हैं अक्सर लोग दिल को ।
अभी  पहरे  पे  कुछ थाने  रहेंगे ।।

हमें  है  याद उसका हर तरन्नुम ।
हमारे   साथ   नज़राने   रहेंगे ।।

न् जाओ इस तरह से छोड़ कर अब ।
कई   कूचे   तो   वीराने    रहेंगे ।।

छलकती मय का जादू जब तलक है।
नज़र  के   पास   मस्ताने   रहेंगे ।।
             ---- नवीन मणि त्रिपाठी
                 मौलिक अप्रकाशित
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ग़ज़ल

*221 2121  1221  212*

कैसे  कहूँ  मैं  आपसे   मुझको  गिला  नहीं ।
चेहरे  से  क्यूँ नकाब अभी तक उठा नहीं ।।

भूखा किसान शाख  से लटका हुआ  मिला ।
शायद  था  उसके  पास  कोई  रास्ता नहीं ।।

नेता  को चुन  रहे  हैं  वही  जात  पाँत  पर ।
जिसने कहा था जात मेरा  फ़लसफ़ा नहीं ।।

मजबूरियों  के  नाम  पे  बिकता  है आदमी ।
तेरे   दयार   में   तो   कोई   रहनुमा   नहीं ।।

मुझसे   मेरा  ज़मीर   नहीं   माँगिये   हुजूर ।
इसकी ही वज़ह से मैं अभी तक मरा नहीं ।।

हालात  आजमा  के  गए  मुझको  बार बार ।
रहमत खुदा की थी कि नज़र से गिरा नहीं।।

उठती  हैं   बेटियां  भी  यहां  रोज  कार  से ।
मत  बोलिये  कि  बाप  यहां गमज़दा नहीं ।।

उलझा दिया चमन है ये मजहब के नाम पर ।
रोटी   से  हुक्मरां   का  कोई  वास्ता  नहीं ।।

चेहरे को  देखकर  वो मुकरते हैं इस  तरह ।
जैसे  हो  उनके  पास  कोई  आईना  नहीं ।।

कोटे  से  कर रहे  हैं सियासत  वो  देश  में ।
पैनी  सी ज़ेहन पर  है  कोई  तबसरा नहीं ।।

            -- नवीन मणि त्रिपाठी

ग़ज़ल -- तेरे चमन में देखा तन्हाइयों की चर्चा

*221  2122  221 2122*
तेरे चमन में  देखा  तन्हाइयों की चर्चा ।
कुछ  लोग कर रहे हैं दुष्वारियों की चर्चा  ।।

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चेहरा छुपा छुपा के वह रोज मिल रही है ।
होने लगी है उसकी लाचारियों की चर्चा ।।
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चुपचाप वो खड़े हैं देखा कभी था जिनको ।
मशहूर कर गई थी बेबाकियों की चर्चा ।।
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चलती रही वो अक्सर बनकर के रूह मेरी ।
क्यो आज हो रही है परछाइयों की चर्चा ।।

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मुँह फेर कर गई हैं खुशियां भी मेरे दर से ।
जब से हुई हमारी बीमारियों की चर्चा ।।

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नज़रों से सब बयाँ है चेहरा खिला खिला है ।
सुनकर गई है वह भी शहनाइयों की चर्चा ।।

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यूँ ही ग़ज़ल हुई थी मालूम था कहाँ ये ।
पैनी नज़र से होगी बारीकियों की चर्चा ।।

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शायद वो शहर भर में बदनाम हो चुका है ।
सबकी जुबां से सुनता रुसवाइयों की चर्चा ।।

              नवीन मणि त्रिपाठी

हिंदी

-----**** ग़ज़ल ***------

121  22  121 22 121 22 121 22
       
झुकी   झुकी  सी  नज़र  में   देखा ,
कोई   फ़साना   लिखा   हुआ   है ।।
ये    सुर्ख   चेहरा    बता   रहा   है 
के दिल का  मौसम  जुदा  जुदा है ।।

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फ़िजा  की   सूरत   बदल   रही   है ,
अजीब  मंजर  है  आशिकी    का ।।
हैं    मुन्तजिर    ये    सियाह   रातें ,
वो  चांद  कितना  ख़फ़ा  खफ़ा है ।।

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तमाम    शिकवे    गिले    हुए     हैं ,
तमाम     बातें    बयाँ    हुई      हैं ।
जो   फासले   बन   गए  थे तुझसे ,
क्यों  रफ्ता  रफ्ता   बढ़ा   रहा   है ।।
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सबा   भी   सरसर    बनी    हुई   है ,
सुकूँ   के  लम्हों   ने   साथ   छोड़ा ।
ये    तीरगी   का   अजीब   आलम, 
चिराग   घर  का   बुझा   बुझा  है ।।

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जरूर   कुछ   तो   मलाल   होगा , 
हमारी    चाहत  के    हौसलों  से ।
ऐ   हुस्न  वाले   बता   तो   मेरा ,
गुनाह   जो  यूँ कटा   कटा   है ।।

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 जो  आग  दिल  में  लगा  गए थे , 
वो आग  अब  तक  बुझी  नहीं  है ।
सुलग रही  है  ये  दिल  की  बस्ती ,
दयार   में  अब   धुंआ   धुंआ  है ।।

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यहाँ   रकीबों   की   महफिलों   में , 
तेरी    अदाएं    मचल    रही     हैं ।
तेरे    उसूलों   की   सरजमीं    पर ,
वफ़ा  का  झंडा   झुका  झुका  है ।।

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नकाब   इतना   उठा  के  मत  चल
 हैं   रिंद   मुद्दत   से    तिश्नगी   में ।
ये  जाम  छलका  न आंख  से अब
ये  मैकदा  क्यूँ   खुला   खुला  है ।।

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न    नींद   आई    न   चैन  तुझको
न  होश  में  क्यूँ  मिले अभी  तक ।
ये   तेरा   लहजा    बता   रहा    है 
ये   इश्क  तेरा  नया    नया     है ।।

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कोई  तो  रहबर  है  तेरे  दिल   का ,
किसी  की  नजरें  हुई   हैं  कातिल ।
जो  नूर   करता   था  बज्म  रोशन ,
वो   नूर    कैसा   लुटा    लुटा    है ।।

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ओ    जाने   वाले   जरा  ठहर   जा 
इधर   भी  अपनी   निगाह  कर  दे ।
जो  जख्म  मुझको  मिला था तुझसे 
वो  जख्म  अब  तक  हरा  हरा  है ।।

         -- नवीन मणि त्रिपाठी 
          मौलिक अप्रकाशित 
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ग़ज़ल 50 शेर के साथ

-------ग़ज़ल -------52 शेर के साथ
2122 1212 22
बात   तुम  भी  खरी  नही करते ।
काम  कोई  सही   नही    करते ।

चोट दिल पर लगी है फिर उनके।
काम  ये  मजहबी  नहीं   करते ।।

जब से अफसर बना दिया कोटा ।
बात  अच्छी  भली  नहीं   करते ।।

दोस्तों   की   किसी  तरक्की  में ।
यूँ   मुसीबत  खड़ी  नहीं करते ।।

जिंदगी  पर  यकीन  है  जिनको ।             वो  कभी खुदकुशी  नहीं  करते ।।

कुछ  तो  खुन्नस  बनी  रही होगी ।
बेसबब     बेरुखी   नहीं   करते ।।

पेंग  गर  प्यार   की  बढ़ानी    है ।
प्यार   में   हड़बड़ी  नही  करते ।।

है मुहब्बत  का आसरा  जिनको ।
हुस्न  की  रहबरी   नहीं    करते ।।

सिर्फ मिसरे से काम क्या चलता ।
टिप्पणी कुछ  कभी  नही करते ।।

थी    गरीबी  की  दास्तां    होगी ।
काम  गन्दा  सभी  नहीं   करते ।।

हमको मालूम राज की कीमत ।
बेवफाई    कभी   नही   करते ।।

जिनको मंजिलकी फिक्रहै काफी ।
वक़्त  से   दुश्मनी  नहीं    करते ।।

है पता उन्को  कैफियत अपनी ।
वो   इधर  तर्जनी  नहीं  करते ।।

ये  मुहब्बत  है खेल  मत मुझसे ।
हम  कभी  दिल्लगी नहीं करते ।

रहनुमाई   चली   गई   जब  से ।
बात  तब से  बड़ी  नहीं  करते ।।

वोट  पाकर  वो खो गया वरना ।
लोग  बे  इज्जती नहीं  करते ।।

है मुहब्बत  का आसरा  जिनको ।
हुस्न   की  रहबरी  नहीं   करते ।।

चोट दिल पर लगी है फिर उनके ।
काम  ये  मजहबी  नहीं   करते ।।

पेंग  गर  प्यार   की  बढ़ानी   है ।
प्यार  में  हड़बड़ी   नही    करते ।।

सिर्फ मिसरे से काम  क्या चलता ।
टिप्पणी  कुछ  नई   नही  करते ।।

वो  निशाने  पे   तीर  था   वरना ।
वो  कभी  खलबली  नहीं  करते ।।

बैठ  जाये  कोई  मेरे   सर    पर ।
छूट   इतनी  खुली  नहीं   करते ।।

सर  फ़रोसी  की  है  तमन्ना  अब ।
वार  में  बुजदिली   नहीँ    करते ।।

कीमतें    वे    वसूलते   हैं   जो।
माल  अपना  दही  नहीं   करते ।।

शर्त  है  जिस्म  दिल लगाने  की ।
लोग  क्या ज्यादती  नहीं  करते ।।

गर   किसानों  से  वास्ता  रखते ।
मुल्क  में  भुखमरी  नहीँ  करते ।।

कुछ  तबीयत मचल  गयी  होगी ।
हम  कभी  आशिकी नही  करते ।।

मुफ़्लिशी दौर से जो है वाकिफ़ ।
वो   हमारी  हसी   नहीँ   करते ।।

फंस न्  जाएं  ये पाँव  ही अपने ।
हम  जमीं  दलदली  नहीं  करते ।।

खास शातिर हैं इश्क के मुजरिम ।
हाथ  में  हथकड़ी  नहीं   करते ।।

है  छुपाना अगर  ये धन  काला ।
बिस्तरे  मखमली  नहीं  करते ।।

खर्च का बोझ बढ़ गया जब से ।
बात अब रस भरी नही  करते ।।

सर्जिकल  हो गई वहां  जब  से ।
मूछ   अपनी  तनी  नहीं  करते ।।

ध्यान  देतीं  नहीं  अगर   मैडम ।
आज  हम  शायरी  नहीं  करते ।।

मैं तो ठहरा हूँ इस तरह दिल मे ।
आप अब हाजिरी  नहीं  करते ।।

देश   द्रोही   है  कन्हैया  उनका ।
दुश्मनों   की  कमी  नहीं  करते ।।

फिर हुए हैं  जवान  क्यो जख्मी।
लोग क्या  मुखबिरी नहीं  करते ?

नेकियाँ    बेहिसाब   हैं  उनकी ।
हम  कभी  भी बदी  नहीं करते ।।

क्यों  उमीदें  लगा  के  बैठे  हो ।
अब्र   ये  चांदनी   नहीं   करते ।।

जब  से  लूटा  है लाल  कुर्ते ने ।
रेलवे   में   कुली   नहीं  करते ।।

बाम   पंथी  बिके   हुए  शायद ।
जुर्म  पर  सनसनी  नहीं  करते ।।

जब भी  मारा है  उसने आतंकी ।
क्यों वे जाहिर खुशी नहीं करते ।।

मैं भी  आज़ाद हो  गया होता ।
तेरे  शिकवे   बरी  नहीं करते ।।

जब से दौलत का  हाल जाना है ।
आँख  वो  शरबती  नहीं  करते ।।

कोई राधा नहीं दिखे तब तक ।
होठ  पर  बाँसुरी  नहीं  करते ।।

काफ़िया वो   बना  रहे   काफी ।
ध्यान   हर्फे   रवी   नहीं   करते ।।

गर कलम जारही है मंजिल तक ।
रोक कर  मन  दुखी नहीं करते ।।

काम   ऐसा   बचा   नहीं   कोई ।
अब जिसे आदमी  नहीं  करते ।।

मिल गया जब से है उन्हें वोहदा ।
बात  भी  लाजिमी  नहीं  करते ।।

शुद्ध  पण्डित का है लहू  रग   में ।
काम  मे  जाहिली  नहीं  करते ।।

हो   गई    हाफ    सेंचुरी   शायद।
बात  हम   बेतुकी   नहीं    करते ।।

            - नवीन मणि त्रिपाठी 
            मौलिक अप्रकाशित 
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ग़ज़ल ---हाथ काफी मले गए हर सू

-----ग़ज़ल -----

*2122  1212  22*

 हाथ   काफी  मले  गए  हर  सू ।
कुछ   सयाने  गए  छले  हर सू ।।

बात    बोली   गई    दीवारों  से ।
खूब   चर्चे  सुने  गए    हर  सू ।।

आग का कुछ पता न् चल पाया ।
 बस धुंआ ही धुंआ उठे हर सू ।।

इक तरन्नुम में पढ़ ग़ज़ल मेरी ।
ये  ज़माना  तुझे  सुने  हर सू ।।

जुर्म  की हर निशानियाँ  कहतीं ।
अश्क़ यूं ही नहीं  बहे  हर  सू ।।

वह   मुहब्बत  में  डूबती  होगी ।
ढूढ़  दरिया  में  बुलबुले  हर सू ।।

इश्क का कुछ असर उन्हें भी  है ।
रह  रहे   हैं  कटे   कटे  हर  सू ।।

मुस्कुरा  कर  वो  कत्ल करते  हैं ।
लोग  मिलते  कहाँ  भले  हर सू ।।

सर पे बांधे कफ़न  मिला है वह ।
अब   इरादे  बड़े  बड़े   हर   सू ।।

कुछ   तरक्की   नही  हुई  उनसे ।
सिर्फ  मुद्दे  बहुत  उठे  हर सू ।।

आज   उसने  नकाब   फेंका  है ।
देखिए आज  जलजले  हर  सू ।।

उनके आने की खबर है शायद ।
रंग   बिखरे   हरे  हरे  हर   सू ।।

प्यास देखी  गयी  नहीं   उनसे ।
अब्र आकर  बरस गए  हर सू ।।

कितनी भोली अदा में दिखती है ।                         चल रहे खूब सिलसिले  हर सू ।।

कुछ अदब का लिहाज है वरना ।                        उसके  चर्चे   बड़े   बुरे  हर  सू।।

बेबसी   पर  सवाल  मत   पूछो । 
लोग मुश्किल से तन ढके हर सू ।।

नज़नीनो  का  क्या  भरोसा  है ।               जब मिले  बेवफा मिले हर सू ।।

कितनी ज़ालिम निगाह है साकी ।           रोज आशिक  दिखे  नए हर सू ।।

रोजियाँ   वो  नहीं   बढ़ा   पाए ।
हो गए  खूब  मनचले   हर  सू ।।

होश आने का जिक्र  कौन करे ।
खुल रहे  रोज  मैकदे  हर  सू ।।

कुछ अंधेरा   नही  मिटा  पाए ।
दीप लाखों मगर  जले हर सू ।।

 रात मिलकर गई है  जब से वो ।
हो रहे  तब  से  रतजगे  हर सू ।।

 कोई  पढ़ता  नही  सुख़न  मेरे ।
क्या सुख़नवर नहीं  बचे हर सू ।।

 अब कलम बन्द कर दिया हमने ।
हौसले   हैं   बुझे  बुझे   हर  सू ।।

          --- नवीन मणि त्रिपाठी

ग़ज़ल

2122  2122  2122  212

मैं तेरे अहले चमन का सिलसिला हो जाऊंगा।
बेवफा मुझको कहो मत मैं अता हो जाऊंगा ।।

कुछ तेरी फ़ितरत है ऐसी कुछ मेरी आवारगी ।
वस्ल  के आने  पे तेरा मयकदा हो  जाऊंगा ।।

घुघरूओं  की  ये  सदायें छू  रही हैं रूह  को ।
मैं तेरी महफ़िल में आकर बाखुदा हो जाऊंगा।।

अब  मेरे  हालात  पर नज़रे  इनायत कीजिये ।
आपकी इस जिंदगी का तज्रिबा हो जाऊंगा ।।

बज़्म  में   लाखों   दीवाने  आ  गए  हैं आपके ।
कौन  कहता आपका मै  रहनुमा  हो जाऊंगा ।।

कुछ नज़र में  तिश्नगी  है  हुस्न पर छाई बहार ।
अब  हुकूमत आपकी है मैं फ़ना हो जाऊंगा ।।

ये   नज़ाक़त  ये अदाएं  ये  तुम्हारी  शोखियाँ ।
देख  लेना फिर मुझे जब आईना हो जाऊंगा ।।

खिड़कियों से झांककर देखाकरो मतइस तरह।
दिल बहुत नाजुक है मेरा मैं फिदा हो जाऊंगा।।

लोग  पूछेंगे   तुम्हारे   दिल के जब भी  रास्ते  ।
क्या ठिकाना है तुम्हारा वह पता  हो जाऊंगा ।।

शह्र  में  चर्चा  बहुत है  हर जुबाँ  पर है सवाल ।
लगरहा सबकी ज़ेहन का फ़लसफ़ा हो जाऊंगा।

है  मुहब्बत आज  भी  जिंदा  मेरे  अरमान में ।
क्या खबर थी मैं तुम्हारी इक ख़ता होजाऊंगा।

             नवीन मणि त्रिपाठी
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ग़ज़ल

1222 1222 122
उसे  सर  पर   बिठाया  जा  रहा है ।
किसी  पे  जुर्म  ढाया  जा  रहा  है ।।

उन्हें  मालूम   है  अपनी   तरक्की ।
जहर  को  आजमाया  जा रहा है ।।

चलेगा किस तरह गर्दन पे  ख़ंजर ।
तरीका सब सिखाया  जा  रहा है ।।

जो नफरत में चलाता रोज  पत्थर ।
उसे   अपना  बताया जा  रहा  है ।।

जो चारा  खा  चुके  हैं जानवर  का ।
उन्हें   नेता  बुलाया   जा   रहा   है ।।

वो   गायें  काटते  हैं  वोट  खातिर ।
नया  मजहब  चलाया  जा  रहा है ।।

जे एन यू में है  गद्दारी  का  आलम ।
हमारा  घर   मिटाया  जा  रहा   है ।।

न  जाने  क्या  बिगाड़ा  सैनिकों  ने ।
मनोबल  फिर  गिराया जा रहा  है ।।

करोड़ो  लूट  कर  बोली  बहन जी ।
हमें   झूठा  फसाया  जा   रहा   है ।।

सियासत  हो  रही  है जातियों  पर ।
नया   कानून  लाया  जा  रहा   है ।।

सड़क तो बन चुकी कागज में देखो ।
हक़ीक़त  को  छुपाया जा  रहा  है ।।

सलाखों तक कहाँ जाते हैं मुजरिम ।
महज   पर्दा  उठाया  जा   रहा   है ।।

ये   मौसेरे  से  भाई  लग   रहे    हैं ।
बड़ा  रिश्ता  निभाया  जा   रहा  है ।।

            नवीन मणि त्रिपाठी 
          मौलिक अप्रकाशित 
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ग़ज़ल --फिक्र बनकर तिश्नगी देखा सँवर जाती है रोज़ ।

--------------------ग़ज़ल -------------

2122  2122  2122  212(1)

फिक्र   बनकर  तिश्नगी  देखा  सँवर  जाती है रोज़ ।
उस दरीचे  तक मेरी  सहमी  नज़र जाती  है रोज़ ।।

बेकरारी    साथ   लेकर   मुन्तज़िर   होकर खड़ी ।
एक आहट की खबर पर वह निखर जाती है रोज ।।

सिम्त  शायद   है  ग़लत  उलझे   हुए   हालात    हैं ।
है  मुसीबत  बदगुमां  घर  में  ठहर  जाती  है  रोज़ ।।

जिंदगी   के    फ़लसफ़े   में   है  बहुत    आवारगी ।
ठोकरें  खाने  की  ख़ातिर  दर  बदर जाती है रोज़ ।।

यह   उमीदों  का  परिंदा  भी  उड़े   तो   क्या  उड़े ।
बेरुखी  तो  बेसबब  पर  ही  क़तर जाती  है रोज़ ।।

कुछ    दरिंदों   की   तबाही , जुर्म   जिंदाबाद    है ।
आत्मा  तो  सुर्खियां  पढ़कर  सिहर जाती  है रोज़ ।।

बन   गया  चेहरा  कोई  उसके लिए  अखबार  अब ।
पढ़ शिकन की दास्तां दिल तक खबर जाती है रोज़ ।।

दे  रहा   है  वक्त   मुझको   इस  तरह   से  तज्रिबा ।
आँधियों  के  साथ  में  आफ़त  गुज़र जाती है रोज़ ।।

वस्ल  की  ख़्वाहिश  का  मंजर है सवालों से घिरा ।
देखिए  साहिल  को  छूनें  यह  लहर जाती है रोज़ ।।

क्या  कोई  रिश्ता  है उसका  पूछते  हैं अब  सभी ।
क्यूँ  इसी  कूचे  से वो शामो  सहर  जाती  है रोज़ ।।

            नवीन मणि त्रिपाठी 
            मैलिक अप्रकाशित 
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ग़ज़ल

*1212 1212 1212 1212*
सितम   की  आरजू   लिए   है   वक्त  आजमा  रहा ।
जो   हो   सका   नहीं   मेरा   वो    रास्ता  बता रहा ।।

अजीब  दास्ताँ  है  ये न्  कह   सका  न  लिख  सका।
ये  हाथ  मिल  गए   मगर  वो   फासला   बना   रहा ।।

है  हसरतों  की  क्या  ख़ता  उन्हें  जो  ये सजा मिली ।
मैं   कातिलों   का  रात   भर   गुनाह   देखता   रहा ।।

बड़ी   उदास   शब   दिखी  न   माहताब  था  कहीं ।
वो  कहकशां  सहर   तलक   हमें   ही   घूरता  रहा ।।

जो  सिलसिला चला  नही  उसी का जिक्र फिर सही ।
धुँआ  उठा   बहुत   मगर  न  आग   का   पता  रहा ।।

शजर  शजर  में   गुफ्तगूं  है बगवां  को   क्या  खबर ।
बगावतों   का    दौर   है   वो    कारवां   चला   रहा ।।

खुदा   समझ   सका   न   वो  अलग   हुईं   इबादतें ।
है   मजहबी    दयार   ये   खुदा   जुदा   जुदा  रहा ।।

नज़र  को   फेर   हमनशीं   गुजर  गया   करीब  से ।।
बदल  गए  मिज़ाज   सब  वफ़ा  का  सर झुका रहा ।

हवा  ने  रुख  बदल  दिया  तो  आग  भी  सुलग  गई ।
वतन  का  खैर  ख्वाह  ही  वतन  को  अब जला रहा ।।

हजार   घर   उजड़   गए   तमाम   लाश   जल  गयीं ।
सियासतों   के  नाम   पर  वो   मसअला  खड़ा  रहा ।।

               नवीन मणि त्रिपाठी 
             मौलिक अप्रकाशित 
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पूछिये मत क्यों हमारी शोखियाँ कम पड़ गईं

।। 2122 2122 2122 212 ।।

पूछिये मत क्यो  हमारी शोखियाँ कम पड़ गईं ।
जिंदगी  गुजरी  है  ऐसे आधियाँ कम पड़ गईं ।।

भूंख के मंजर से लाशों ने किया है यह सवाल ।
क्या ख़ता हमसे हुई थी रोटियां कम पड़ गईं ।।

जुर्म की  हर इंतिहाँ ने कर  दिया इतना असर ।
अब  हमारे मुल्क में भी बेटियां कम पड़ गईं ।।

मान् लें  कैसे उन्हें  है फिक्र जनता  की  बहुत ।
कुर्सियां जब से  मिली हैं झुर्रियां कम पड़ गईं ।।

इस तरह बिकने लगी है मीडिया कीसाख  भी।
जबलुटी बेटीकी इज्जत सुर्खियां कमपड़ गईं ।।

मैच  फिर खेला गया कुर्बानियो  को  भूलकर ।
चन्द  पैसों  के लिए रुसवाइयाँ कम  पड़ गईं ।।

मत कहो हीरो उन्हें  तुम वे खिलाड़ी मर चुके ।
दुश्मनों के बीच जिनकी खाइयां कमपड़ गईं ।।

हो  गया  नीलाम  बच्चों  की पढ़ाई  के  लिए ।
जातियों के फ़लसफ़ा में रोजियाँ कमपड़ गईं ।।

क्यो  शह्र जाने लगा है गांव का वह आदमी ।
नीतियों के फेर में आबादियां  कम पड़ गईं ।।

देखते  ही देखते  क्यो लुट गया सारा  अमन ।
कुछ लुटेरों  के लिए तो बस्तियां कम पड़ गईं ।।

सिर्फ  अपने ही  लिए जीने लगा  है  आदमी ।
देखिए अहले चमन में नेकियाँ कम पड़ गईं ।।

यह  सही  है बेचने वह  भी  गया  ईमान  को ।
गिर गया बाज़ार  सारी बोलियाँ कम पड़ गईं ।।

             --- नवीन मणि त्रिपाठी 
               मौलिक अप्रकाशित 
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शनिवार, 3 जून 2017

ग़ज़ल --खुशामद की बलाएँ बेशबब बीमार करती हैं

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वो अक्सर  बेरुखी से  वक्त  का  दीदार करती हैं ।
हवाएं  इस  तरह  से  जिंदगी  दुस्वार  करती  हैं ।।

न  जाने  क्या  मुहब्बत  है हमारी हर  तरक्की से ।
हज़ारों मुश्किलें हम  से ही  आंखें चार करती हैं ।।

बड़ी चर्चा है वो  बदनामियों से अब  नहीं  डरता ।
है  उसकी हरकतें ऐसी  दिलों को  ख्वार करतीं हैं ।।

जिन्हें खुद पर भरोसा ही नही रहता है मस्जिद में ।
उन्हें तो रहमतों  की  ख्वाहिशें लाचार  करती  हैं ।।

न् जाओ तुम कभी मतलब  परस्तों  के इलाके  में ।
खुशामद  की  बलाएँ  बेशबब  बीमार करती हैं ।।

वफ़ा चाहो वफ़ा पढ़ लो जफ़ा चाहो जफ़ा पढ़ लो ।
तुम्हारी  चाहतें  मुझको  खुला अखबार  करती हैं ।।

सँभल के चल मेरे साथी निगाहें हैं बड़ी जालिम ।
सुना  है  वारदातें   वो   सरे   बाज़ार   करतीं  हैं ।

उन्हें कैसी अदावत है समझना भी हुआ मुश्किल।
दुआएं   पास  आने  से  मेरे  इनकार  करतीं  हैं ।।

न पूछो हाल अब उसका बहुत चर्चा है जोरों पर ।
अदाएं गैर की महफ़िल गुले गुलज़ार करती हैं ।।

              नवीन मणि त्रिपाठी 
            मौलिक अप्रकाशित
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ग़ज़ल --कश्मीर हमारा है हमारा ही रहेगा

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भारत की बुलन्दी का सितारा ही रहेगा ।
कश्मीर  हमारा  है  हमारा  ही   रहेगा ।।

हालात   बदलने  में  नहीं  देर   लगेगी ।
प्यारा है हमें मुल्क तो  प्यारा ही रहेगा ।।

हम एक थे  हम एक  हैं  हम  एक  रहेंगे ।
यह  दर्द तुम्हारा  है  तुम्हारा  ही  रहेगा ।।

बरबाद  नहीं  होगी शहीदों  की निशानी ।
इतिहास  में  हारा  है  तू  हारा ही रहेगा ।।

ऐ  पाक  कहाँ  साफ़  रहा है तेरा दामन ।
है तुझ से किनारा तो  किनारा ही  रहेगा ।।

यह ख्वाब न् पालो के कभी तोड़ सकोगे ।
यह  ख्वाब  कुँवारा है कुँआरा ही  रहेगा ।।

फंडिंग के लिए देख  मेरा  काम  जबाबी ।
हर   वार  करारा  है  करारा  ही   रहेगा ।।

बेशर्म हिमाकत से  यूँ पत्थर  न्  चला तू।
किस्मत का तू मारा है तो मारा ही रहेगा ।।

कॉपी राइट --- नवीन मणि त्रिपाठी
             मौलिक अप्रकाशित

सारा चेहरा गुलाब है यारों

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वो     दिखी     बेनकाब   है   यारों।
सारा    चेहरा     गुलाब  है   यारोँ ।।

अच्छी  सूरत  भी  क्या  बुरी शय है ।
सबकी   नीयत   खराब   है  यारों ।।

है लबों  पर  अजीब  सी  जुम्बिश ।
कैसा    छाया   शबाब   है   यारों।।

होश  खोया  है   देख  कर  उसको ।
वह     पुरानी    शराब   है   यारों ।।

एक    मुद्दत   के   बाद   देखा   है ।
हुस्न    पर     इंकलाब   है    यारों।।

मैं   जिसे   सुबहो   शाम  पढ़ता  हूँ ।  
वह   ग़ज़ल   लाजबाब   है   यारों ।।

मत  पढो  जिंदगी   का   हर  पन्ना ।
बेबसी     की    किताब    है  यारों।।

पैरहन   ख्वाब   में   वो   आती   है ।
कितनी    आदत   खराब   है  यारों ।।

क्या   सुनाऊँ   मैं   बात   रातों  की ।
वो    कोई     माहताब     है   यारों ।।

आज    बादल   जमीं    पे   बरसेंगे ।
तिश्नगी      बेहिसाब      है      यारों ।।

जिस से  मिलने गए थे महफ़िल  में ।
वह      मेरा     इंतखाब    है  यारों ।।

                   ---नवीन मणि त्रिपाठी
                 मौलिक अप्रकाशित

ग़ज़ल --नफरत का सियासत में चलन देख रहे हैं

221  1221  1221  122

अब हम भी  ज़माने का सुख़न देख रहे हैं ।।
बिकता  है  सुखनवर  ये  पतन देख रहे हैं ।।

बदनाम न्  हो  जाये  कहीं  देश का प्रहरी ।
नफरत का सियासत में चलन  देख रहे हैं ।।

वो  मुल्क  मिटाने  की  दुआ  मांग  रहा   है ।
सीने  में   बहुत  आग   जलन  देख  रहे  हैं।।

सब भूंख मिटाते हैं वहां  ख्वाब दिखा  कर ।
रोटी   की  तमन्ना  का  हवन  देख  रहे  हैं ।।

वादों  पे  यकीं  कर के गुजारे  हैं कई साल ।
मुद्दत  से  गुनाहों  का  चमन  देख  रहे  हैं ।।

लाशों   में  इज़ाफ़त  तो  कई  बार  हुई   है ।
अम्नो  सुकूँ  का  आज शमन देख  रहे  हैं ।।

इज्जत जो लुटी आज सड़क पे है तमाशा ।
चेहरों पे  जलालत का  शिकन देख रहें हैं ।।

पत्थर  वो  चलाते  है सरे  आम  वतन  पर ।
बदले  हुए  मंजर  में  चुभन  देख  रहे   हैं ।।

भगवान  से  क्यों  दूर  हुए  आज  पुजारी ।।
दौलत  के  ठिकानों  पे  भजन  देख रहे हैं ।।

रोटी  ही  नहीं पेट  में जीना भी  है मुश्किल ।
अब  रोज तबस्सुम  का  दमन  देख रहे हैं ।।

नम्बर मे वो अव्वल था वो कोटे में नहीं था ।
इंसान की  हसरत  पे  कफ़न  देख  रहे  हैं ।।

           ---  नवीन मणि त्रिपाठी
               मौलिक अप्रकाशित

ग़ज़ल --कुछ लोग मुहब्बत को आबाद नहीं करते

वज़्न    -   221 1222 221 1222
पिजरे  से  परिंदे  को  आज़ाद  नहीं   करते ।
कुछ लोग मुहब्बत को  आबाद  नहीं  करते ।।

फ़ितरत है पतंगों  की  शम्मा  पे  मचलने की ।
ऐसे  जुनूं  पे  आलिम  इमदाद  नहीं  करते ।।

वह दर्द मिटाने  का  वादा  किया  था  वरना ।
रह रह  के मुकद्दर  को हम  याद नही  करते ।।

ज़ालिमकी अदालत में सचपर गिरी है बिजली
मालूम   अगर   होता  फरियाद  नही  करते ।।

वो साथ निभाएंगे कहना है बहुत मुश्किल ।
वो  वक्त  कभी  हम  पर बर्बाद नहीं करते ।।

हसरत  ही  मिटा बैठे कुछ लोग ज़माने में ।
खुशियों की तमन्ना  को  ईज़ाद नहीं करते ।।

दरिया  का  समंदर  से  मिलने का इरादा है ।
बेबाक   भरोसे  पर   सम्वाद  नहीं   करते ।।

देखेंगे  नहीं   मुझको  गर  राज  पता  होता ।
महफ़िल की बड़ी  लम्बी  तादाद नहीं करते ।।

कहा किसने तेरा परचम नहीं है

1222 1222 122 
अना  की बात में कुछ  दम  नहीं  है ।
कहा   किसने  तेरा  परचम नहीं  है ।।

मिलेंगी  कब  तलक  ये  स्याह रातें ।
तेरी  किस्मत  में क्या पूनम नही है ।।

अभी तक मुन्तजिर है आंख उसकी ।
वफ़ा  के नाम पर कुछ कम नहीं है ।।

चिरागे  इश्क़  पर  है  नाज़   उसको ।
उजाला  भी   कहीं  मध्यम  नहीं  है ।।

सजा    देंगे    हमे   ये    हुस्न  वाले ।
हमारे  हक़   का  ये  फोरम  नहीँ है ।।

तेरी  जुल्फों  की  मैं  तश्वीर रख लूँ।
मगर  मुद्दत से  इक अल्बम नही है ।।

मिटा  बैठा  है  वो  उल्फ़त में हस्ती ।
उसे   बर्बादियों   का   गम  नहीं  है ।।

अनासिर  से  मुकम्मल है बदन  वो ।
कहा  कसने   बदन  संगम  नहीं  है ।।

नहीं  है  वस्ल  का मौसम कहो मत ।
तुम्हारी   तिश्नगी   में   दम  नहीं   है ।।

सहर  को  मान लूँ  मैं सच  भी  कैसे ।
गुलों  पर  रात  की  शबनम  नहीं  है ।।

अना  के  साथ  मत  यूँ  पेश  आओ।
मेरी  ग़ज़लों  का  तू  उदगम नहीं है ।।

बहुत  मुमकिन  मुहब्बत  जीत  जाए ।
 छुपा    कोई   वहाँ   रुस्तम  नहीं   है ।।

है  गर   जज़्बा  तो  मेरे  पास  आओ ।
जिगर   तक   रास्ता   दुर्गम  नहीं  है ।।

किसी  का जख़्म  मत पूछा  करो  यूँ ।
तुम्हारे  पास  जब  मरहम   नहीं   है ।।

अजब  क़ातिल से  उसका  वास्ता  है ।
सजाये   मौत   पर   मातम  नही   है ।।

                 ----नवीन मणि त्रिपाठी

ग़ज़ल --है सुनी उसने भी कल मेरी ग़ज़ल

2122  2122  212

कर  गई  अपनी  पहल  मेरी  ग़ज़ल।
है सुनी  उसने  भी  कल  मेरी ग़ज़ल।।

हर्फ़   चेहरे  पर  उभर  कर  आ  गए ।
इश्क पर  रखती  दखल  मेरी ग़ज़ल।।

सुर्खरूं  होती   गई  वह   बे  हिसाब ।
होठ पर  जाती  मचल  मेरी  ग़ज़ल ।।

तोड़ ले कोई भी  गुल को  शाख से ।
है कहाँ  इतनी  सरल  मेरी  ग़ज़ल ।।

यूँ नज़र  मत आइये  मुझको सनम ।                          देखकर  जाती  बदल  मेरी  ग़ज़ल ।।

मत कहो उसको फरेबी  तुम  कभी ।
बात  पर  रहती  अटल मेरी ग़ज़ल ।।

शेर  की   गहराइयों  में   डूब   कर ।
फिर गई  थोड़ी सँभल  मेरी  ग़ज़ल।।

उसकी सूरत देख कर जब भी लिखी ।
फिर खिली जैसे  कंवल मेरी  ग़ज़ल।।

कुछ  उसूलों  के  तले  यह  दब  गई ।
 पी रही अब  तक गरल मेरी  ग़ज़ल ।।

बह्र  हो  या  काफ़िया  या  वज़्न  हो ।
बाद मुद्दत  के  सफल   मेरी  गज़ल ।।

       नवीन मणि त्रिपाठी

ग़ज़ल

212 1222 212 1222 

सिर्फ  चन्द बातों  से  मिल  गई  नसीहत  है ।
आइनों से  मत पूछो क्या मेरी  हक़ीक़त  है ।।

शब  उदास  है  शायद  कुछ सवाल  बाकी हैं।
वस्ल की इजाज़त पर  हो गई  किफ़ायत  है ।।

चाँद  के  निकलने  तक मुन्तजिर  रहा  कोई ।
ईद  की  तमन्ना   पर  इश्क़  की   इनायत है ।।

बाद  मुद्दतों  के  जब  मिल  गई  नज़र  उनसे ।
कुछ मिला सबक उनसे कुछमिली हिदायत है।।

सांस   की  हरारत  को  धड़कनें   बताती   है ।
तिश्नगी  में उसके  भी  कुछ  नई इज़ाफ़त है ।।

दिल छुपा के आया  था लुट  गया मुहब्बत में ।
रहबरोँ से वाकिफ हूँ  हुस्न  की  हिमाकत है ।।

जिंदगी   की   रातें  सब   इंतजार   में  गुज़रीं ।
दे  गया  हमें   कोई    दर्द   की   वसीयत   है ।।

पढ़   रहा   निगाहों   से  रात  दिन  तुझे   कोई ।
बे  शबब  नही   होती  अब   कोई  इबादत  है ।।

             -- नवीन मणि त्रिपाठी